छत्तीसगढ़ की जेलों में सालों साल बंद आदिवासियों पर एनएल सेना सीरीज़.
घने जंगल को चीरते हुए बुरकापाल गांव की ओर जा रही सड़क पर हमारी गाड़ी आगे बढ़ रही थी. सुकमा जिले के दोरनापाल, चिन्तागुफा, बुरकापाल, चिन्तलनार से होते हुए जगरगुंडा की ओर जाने वाली यह सड़क और इसके आसपास का इलाका नक्सलियों का गढ़ माना जाता है. दोरनापाल से आगे बढ़ने के लगभग 15-20 मिनट बाद बगल में बैठे नौ साल के बिरसा ने कहा, "रुक जाओ पुलिस है."
पुसवाड़ा के सीआरपीएफ कैंप के नज़दीक कुछ जवानों को वर्दी में देख कर बिरसा ऐसा कह रहा था. गाड़ी पुसवाड़ा सीआरपीएफ कैंप के बैरियर पर रुकी, पूछताछ कर वहां मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने आगे जाने दिया. गाड़ी बैरियर के कुछ 50 मीटर आगे ही बड़ी थी कि बायीं तरफ मौजूद हेलिपैड की तरफ हाथ से इशारा करते हुए बिरसा ने उत्साह से बताया, "हेलीकाप्टर उतरता है."
गाड़ी आगे बढ़ती गयी और सीआरपीएफ (सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फोर्स) के चिंतलगुफा कैंप के पास मौजूद अगले हेलिपैड को देखकर बिरसा ने मुस्कराते हुए एक बार फिर कहा, "यहां पर भी हेलीकाप्टर दिखता है."
अगले 20 मिनट में गाड़ी पक्की सड़क से कच्ची सड़क को अख्तियार करती हुई बुरकापाल पहुंच गयी. गाड़ी रुकते ही बिरसा रास्ते में खरीदी हुयी कुछ चॉकलेट के पैकेट ले झटपट उतरा और जाकर अपने भाई हिंगा जिसकी उम्र 15 साल और दादी आयते (70 वर्षीय) से लिपट गया. बातों-बातों में जब बिरसा से मैंने पूछा कि वह बड़ा होकर क्या बनेगा तो उसने बताया कि वह बड़ा होकर पुलिस बनेगा. कारण पूछा तो उसने जवाब दिया, "क्योंकि पुलिस बनूंगा तो बन्दूक मिलेगी. बन्दूक मिलेगी तो जिन्होंने मेरे पिता को मारा है उनको मारूंगा.”
नौ साल के बिरसा को शायद यह नहीं पता है कि 24 अप्रैल, 2017 को बुरकापाल में हुए नक्सली हमले के बाद पुलिस ने ही उसके पिता की हत्या की थी. बिरसा के परिवार में अब सिर्फ उसकी दादी और भाई रह गये हैं. पिता की हत्या हो चुकी है, और मां का देहांत भी सात साल पहले हो गया था.
गौरतलब है कि 24 अप्रैल 2017 की दोपहर को बुरकापाल-चिंतागुफा के रास्ते पर सड़क बनाने के काम को पहरा देने के लिए मौजूद सीआरपीएफ की 74वीं वाहिनी के जवानों पर नक्सलियों ने हमला कर दिया था. ये जवान बुरकापाल पुलिस कैंप से आये थे. इस हमले में सीआररपीफ के 25 जवान शहीद हो गए थे और सात घायल हो गए थे. यह हमला बुरकापाल गांव के बिलकुल नज़दीक हुआ था जिसका खामियाजा इस गांव के लोग आज तक उठा रहे हैं.
इस हमले के बाद सबसे पहले बिरसा के पिता भामन मड़कम को सुरक्षाकर्मी गांव से उठा ले गए थे और उनकी हत्या कर दी थी. इस हत्या के बाद इस गांव और आसपास के इलाकों में गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ. इसके तहत दो नाबालिगों सहित 113 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा. साल 2018 और 2019 में 9 लोगों को और गिरफ्तार किया गया था. इस मामले में हैरत की बात यह है लगभग तीन साल तक पुलिस ने इन लोगों को अदालत में पेश तक नहीं किया था और बिना किसी माकूल सुनवाई के ये लोग जेल में कैद हैं.
लाश के साथ छेड़छाड़ और गिरफ्तारियां
बुरकापाल हादसे में हुई गिरफ्तारियों के बारे में जानने के लिए हमें 24 अप्रैल 2017 से शुरुआत करनी होगी. सोमवार का दिन था और गांव में बीज पंडुम का त्यौहार था. बीज पुंडुम आदिवासी संस्कृति का एक बड़ा त्यौहार है और इस दिन लोग धरती की पूजा करते हैं. गांव वालों के मुताबिक उन्होंने पड़ोस के सीआरपीएफ और पुलिसकर्मियों को त्यौहार के दिन सड़क खोदने का काम ना करने की गुजारिश भी की थी क्योंकि बीज पुंडुम के दिन आदिवासी संस्कृति में ज़मीन नहीं खोदी जाती है. साथ ही गांववालों ने सुरक्षाकर्मियों को यह सूचना भी दी थी कि उन्होंने गांव के आसपास के इलाके में कुछ अनजान लोगों को देखा है. लेकिन गांव वालों की सूचना को नज़रअंदाज़ कर काम जारी रखा.
पुलिस दस्तावेजों के मुताबिक 24 अप्रैल, 2017 को तकरीबन 12:55 बजे करीब 200-250 हथियारबंद महिला और पुरुष नक्सलियों ने निर्माणाधीन सड़क की सुरक्षा में तैनात सीआरपीएफ के जवानों पर हमला बोल दिया. इस हमले में 24 जवान शहीद हो गए थे और सात जवान गंभीर रूप से घायल हो गए.
हमले के एक दिन बाद 25 अप्रैल को सुरक्षाकर्मी बुरकापाल गांव आकर भामन मड़कम को घर से उठा ले गए. उस दिन तक गांव के सभी पुरुष गांव में थे. उसके अगले रोज़ गांव के अन्य तीन लोगों सोडी लिंगा, सोडी मुडा और सज्जन नायक को सुरक्षाकर्मी जब गिरफ्तार कर ले गए तब गांव के सभी आदमी बुरकापाल छोड़ कर भाग गए थे. इस गिरफ्तारी के दो दिन बाद एक पन्नी में बंद लाश गांव वालो को दी गयी वह लाश बिरसा के पिता भामन की थी. लाश पन्नी में एक ढेर की तरह नज़र आ रही थी जैसे उसे तोड़मरोड़ कर पन्नी में रख के बांध दिया गया हो.
न्यूज़लॉन्ड्री ने भामन की मां और बिरसा की दादी आयते जोगा मड़कम से बुरकापाल में मुलाकात की. वो कहती हैं, "मेरा बेटा लम्बा-चौड़ा था, लेकिन जब उसकी लाश मिली थी तो एक ढेर की तरह नज़र आ रही थी जैसे हड्डियां तोड़ कर उसके शरीर को समेट कर पन्नी में बांध दिया हो. आज तक नहीं समझ में आया कि उसे किस तरह से मारा होगा जो उसकी लाश ऐसी नज़र आ रही थी. मेरे एक बेटे को मार दिया और दूसरे बेटे को जेल में कैद करके रखा हुआ है.”
गौरतलब है कि भामन के भाई मड़कम हुंगा को भी पुलिस ने बुरकापाल हमले में आरोपी बनाकर जेल में रखा हुआ है.
आयते उस दिन का घटनाक्रम याद करते हुए कहती हैं, "मेरे चार बेटे थे दो बीमारी से मर गए, एक को पुलिस ने मार दिया और एक को जेल में बंद करके रखा है. उस दिन गांव में बीज पुंडुम था, सभी गांव वाले ख़ुशी-ख़ुशी त्यौहार मना रहे थे. दोपहर में मेरा बेटा भामन खाना खाकर घर पर आराम करने चले गया था. घर पहुंचने पर जब वह नहीं मिला तो हम सब लोग और गांववाले उसे खोजने लगे. दो दिन तक उसे खोजते रहे लेकिन कहीं पता नहीं चला. तीसरे दिन उसकी लाश मिली. जब वह आराम करने घर जा रहा था तब आखिरी बार मैंने अपने बेटे को ज़िंदा देखा था.”
आयते आगे कहती हैं, "आज तीन साल हो गए मैं अपने बेटे हूंगा से जेल तक मिलने नहीं जा पायी हूं, पैसे ही नहीं रहते कि जगदलपुर तक का किराया चुका सकूं. एक भी बेटा नहीं बचा है मेरा. किसके सहारे जिऊं. महुआ भी बीनने नहीं जा पाती हूं मन में हमेशा पुलिस का डर बना रहता है. मेरे भामन की मौत के बाद एक डर घर कर गया है मन में. अब ज़िन्दगी के ज़्यादा दिन बचे भी नहीं है, पता नहीं मैं आखिरी बार अपने बच्चे हुंगा को देख पाऊंगी कि नहीं."
जिस वक़्त भामन की लाश गांव में पहुंची थी उस वक़्त गांव में एक पुरुष भी नहीं था. महिलाओं ने ही उनका अंतिम संस्कार किया. सब इस डर से भाग गए थे कि सुरक्षाकर्मी (सीआरपीफ, पुलिस या डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड) उन्हें गिरफ्तार कर लेंगे. नक्सली होने का इलज़ाम लगा कर या तो उन्हें मार देंगे या जेल में डाल देंगे और हुआ भी यही.
28 साल की सोडी जोगी, जिनके पति सोडी लिंगा जेल में हैं, कहती हैं, "बुरकापाल में हुए हमले के दो दिन बाद मेरे पति को पुलिस घर से उठा कर ले गयी. ले जाते वक़्त वो उनको बहुत मार रहे थे. उनके साथ गांव के और दो लोगों को ले गए थे. इस बात का पता चलने के बाद गांव के सारे पुरुष भाग गए. सबको डर था कि उन्हें भी पकड़ कर ले जाएंगे, या तो नक्सली बता कर उन्हें मार देंगे या फिर हमले में उनका नाम शामिल कर उन्हें जेल में कैद कर देंगे."
जोगी एवं गांव की अन्य महिलाओं ने बताया कि जब गांव के पुरुष भाग गए थे तो उस दौरान सुरक्षकर्मियों (सीआरपीएफ-पुलिस) ने गांव में आकर ये आश्वासन दिया था कि वो गांवों के पुरुषों के साथ कुछ नहीं करेंगे.
जोगी कहती हैं, "पुलिस वालों ने गांव आकर कहा था कि बारिश का मौसम आने वाला है, गांव के पुरुष खेती नहीं करेंगे क्या? वो गांव की महिलाओं से बोल रहे थे कि बुला लो अपने-अपने घरवालों को. उन्होंने यह भरोसा दिया था कि किसी भी पुरुष को पुलिस कुछ नहीं करेगी. इसके बाद सभी महिलाएं अगल-बगल के गांव जाकर जहां उनके पति, पिता, भाई या बेटे छुपे हुए थे, उन्हें बुला लायी. लेकिन पुलिस ने गांव वालो का भरोसा तोड़ दिया."
मंगलवार 2 मई को पुलिस की बात पर भरोसा करके बुरकापाल के पुरुष गांव में बैठक के लिए आये तो सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें पीटा गया और उन पर बुरकापाल हमले में शामिल होने का इल्ज़ाम लगा कर जेल भेज दिया गया. उस दिन ताड़मेटला पंचायत जिसमें बुरकापाल और ताड़मेटला गांव आते हैं. 100 के ऊपर गांव वालों को गिरफ्तार किया गया था. जिसमें से लगभग 50 लोग बुरकापाल के थे, बाकी ताड़मेटला, गोंदपल्ली, तोंगगुडा, कारीगुंडम, चिंतागुफा, मेटागुड़ा, तुमालपाड़ा, पेरमिली आदि गांवों के थे.
गौरतलब है कि बुरकापाल मामले में जिन लोगों की गिरफ्तारी हुयी है, उनको गिरफ्तार किसी और दिन हुई थी, जबकि पुलिस दस्तावेज में गिरफ्तारी का दिन कुछ और दिखाया है. सोडी जोगी के कहे अनुसार उनके पति को पुलिस 26 अप्रैल, 2017 को उठा कर ले गयी थी लेकिन पुलिस के दस्तावेज में उनकी गिरफ्तारी 5 मई, 2017 की दिखाई गयी है. सोडी लिंगा के गिरफ़्तारी के दस्तावेज में ऐसी कुछ बातें हैं जो पत्रक लिखने वाले पर सवालिया निशान उठाती हैं.
न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद दस्तावेज में जहां पुलिस ने लिंगा को आदतन अपराधी बताया है वहीं यह भी लिखा है कि उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. रिकॉर्ड मे लिंगा के बारे में पुलिस ने लिखा है कि अक्सर हथियारबंद रहते हैं लेकिन जब लिंगा गिरफ्तार हुआ था तो तन पर पहने कपड़ो के अलावा उसके पास कुछ नहीं था.
लिंगा की ही तरह सोडी, सुकडा, माड़वी जोगा, गोंचे माड़ा, माड़वी आयतु और उनके जैसे दर्जनों आदिवासियों की गिरफ्तारी के कागज़ात में आदतन अपराधी बताया गया जबकि उनके खिलाफ कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. इसके अलावा इस मामले में गिरफ्तार लोगों को अक्सर हथियार बंद रहने वाला बताया गया जबकि गिरफ्तारी के वक़्त उनके पास शरीर पर पहने हुए कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था.
आदमी नही बचे हैं गांव में
बुरकापाल के मौजूदा हालात ऐसे हैं कि गांव में बड़ी मुश्किल से कोई पुरुष दिखता है. गांव की लगभग 95% से भी ज़्यादा आबादी महिलाओं और बच्चों की रह गयी है. जब हम वहां पहुंचे थे तब भी कुछ ऐसा ही नज़ारा था. वहां की महिलाओं ने बताया कि बुरकापाल और उसके आस-पास के पारों (झोपड़ियों का समूह) में बुरकापाल हमले में आरोपी बनाये जा चुके और जेलों में पिछले तीन साल से बंद हैं.
27 साल की वंजाम बुद्री के पति वंजाम नंदा को भी पुलिस ने बैठक की आड़ में गिरफ्तार किया था. वह बताती हैं, "उस दिन बीज पुंडुम था. हम सुबह-सुबह उसमें गए थे. सब त्यौहार मना रहे थे. मेरे पति और मैं साथ में थे. हमें तो पता भी नही था हमले के बारे में. फिर भी मेरे पति और अन्य गांव वालों को गिरफ्तार कर लिया. पिछले तीन साल से वो जेल में क़ैद हैं."
वह आगे कहती हैं, "पिछली बार जब जगदलपुर जेल में मेरे पति से मिलने गयी थी वो गिड़गिड़ा कर कह रहे थे- “कुछ भी करके मुझे यहां से निकाल लो." समझ में नही आता कैसे उन्हें बाहर निकालूं, पैसे भी नही हैं मेरे पास.
बुरकापाल की ही रहने वाली विजया माड़वी के परिवार की कहानी इस बात की गवाह है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में सुरक्षाकर्मी और नक्सलियों की बीच जारी खूनी संघर्ष के सबसे बड़े शिकार निर्दोष ग्रामीण आदिवासी हैं.
साल 2010 में विजया के ससुर माड़वी दूला को ताड़मेटला के इलाके में हुए नक्सली हमले में आरोपी बनाया गया था. अप्रैल 2010 में हुए इस नक्सली हमले में 76 सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गए थे. उस वक्त दूला ताड़मेटला ग्राम पंचायत के सरपंच थे. वह तकरीबन दो साल जेल में रहे और साल 2012 के आखिर में उन्हें अदालत ने बेगुनाह पाते हुए सभी आरोपों से बाइज़्ज़त बरी कर दिया. जेल से आने के बाद दूला अपने ही गांव में रह रहे थे. साल 2015 में उनकी बेटी अनीता सदस्य बनी थी और बहु विजया ताड़मेटला ग्राम पंचायत की सरपंच थी.
लेकिन साल 2016 में मार्च महीने की छठवीं तारीख को दूला का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया और उसके दो दिन बाद बुरकापाल के एक खेत में उनकी लाश मिली. नक्सलियों ने उन पर पुलिस का मुखबिर होने का इलज़ाम लगाया और उनकी हत्या कर दी. गौरतलब है, कि साल 2016 में जिन नक्सलियों ने दूला की हत्या की थी उन्हीं नक्सलियों ने साल 2012 में जब सुकमा के तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया था तो मेनन को रिहा करने के लिए एक मांग ये भी रखी थी कि 76 जवानों की हत्या के आरोप में जेल काट रहे दूला निर्दोष हैं और उन्हें जेल से तुरंत रिहा किया जाए.
विजया के ससुर तो सुरक्षाकर्मियों और नक्सलियों के टकराव की भेंट चढ़ ही गए थे, उनके पति लक्ष्मण माड़वी को भी बुरकापाल नक्सली हमले में आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया गया है.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए विजया कहती हैं, "जिस दिन बुरकापाल में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सली हमला हुआ था, उस दिन हमारे गांव में सभी लोग बीज पुंडुम मना रहे थे. गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर एक खुले मैदान में उत्सव मनाया जा रहा था. तो नक्सल हमले में शामिल होने का तो सवाल ही नहीं उठता है. लेकिन फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया. हमला होने के बाद कुछ गांव वालों को जब इसका पता चला तो उन्होंने बाकी गांव के लोगों को सूचित किया. हमले के दो दिन बाद जब हमारे गांव से तीन लोगों को पुलिस वाले उठा कर ले गए थे उसके बाद गांव के सारे आदमी गिरफ्तारी और मौत के खौफ से अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर चले गए गए थे. मेरे पति पड़वारास गांव में हमारे एक रिश्तेदार के घर चले गए थे. वो वहां दो दिन रहे लेकिन फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया."
गौरतलब है कि बहुत से अन्य लोगों की तरह लक्ष्मण की गिरफ्तारी का समय और दिन पुलिस दस्तावेजों में अलग लिखा गया है. लक्ष्मण की गिरफ्तारी 28 अप्रैल को पड़वारास गांव में उनके रिश्तेदार के घर से हुयी थी लेकिन पुलिस दस्तावेज में उनकी गिरफ्तारी का दिन 4 जुलाई, 2017 और गिरफ्तारी की जगह सुकमा बस स्टैंड बताई गयी है.
विजया के देवर माड़वी सन्ना को भी उसी मामले ने पुलिस ने गिरफ्तार किया हुआ है. जब उनको पुलिस पकड़कर ले गयी थी तो उनकी पत्नी माड़वी जिम्मे गर्भवती थी. वह कहती हैं, "मैं तब तकरीबन 5-6 महीने की गर्भवती थी जब मेरे पति को गिरफ्तार कर लिया था. मेरी एक बेटी है, जब भी जेल जाती हूं उसको साथ में अपने पति से मिलाने ले जाती हूं. तीन साल हो गए हैं अभी तक वो जेल में हैं. ठीक से मुलाकात भी नहीं हो पाती है. पता नहीं कब तक ऐसे ही जेल जाकर मिलना होगा."
विजया बताती है कि सीआरपीएफ वाले उनके गांव के लोगों को बीच-बीच में परेशान करते हैं. वह कहती है, "रात को बड़ी-बड़ी टॉर्च लेकर हमारे घरों में घुस जाते हैं, कभी-कभी हमको वो मारते हैं. महुआ भी बीनने जानने से मना करते हैं. खेती करने से मना करते हैं. फिर भी हम चोरी छुपे थोड़ी बहुत खेती कर लेते हैं. मुझे समझ में नहीं आता कि हमारे गांव वालों ने ऐसा क्या किया है कि हमारे साथ ऐसा हो रहा है. बिना वजह निर्दोष लोगों को जेल में क्यों कैद करके रखा है.”
75 साल की उन्डाम आंधा को अपने बेटे से मिले तीन साल हो गए हैं, वह कहती हैं, "मेरे पास पैसे ही नहीं हैं कि मैं जाकर जेल में बंद अपने बेटे से मिल आऊं. पता नहीं दोबारा उसका चेहरा देख पाऊंगी कि नहीं."
गांव की महिलाओं ने बताया कि एक बार जगदलपुर जेल जाने पर आने-जाने का किराया ही लगभग 600 रुपये लगता है. जेल में बंद अपने लोगों के लिए वह कभी-कभी कपड़े, सब्ज़ी वगैरह भी ले जाती हैं.
गांव की एक अन्य महिला सोडी जोगी कहती है, "आज तीन साल हो गए हैं मेरा घर भी गिरता जा रहा है, पता नहीं कैसे ठीक करुंगी. इस गांव के सब आदमी लोग चले गए हैं, आदमी बचे ही नहीं है इस गांव में. महुआ वगैरह बेच कर औरतें थोड़े बहुत पैसे कमा कर अपनी पतियों से, बेटों से मिलने जेल में जाती हैं. जेल में जाने पर वो सिर्फ एक बात बोलते हैं- हमें जल्दी से बाहर निकालो."
न्यूज़लॉन्ड्री ने बुरकापाल गांव में ऐसी लगभग 40 महिलाओं से मुलाकत की जिनके बेटे, पति, पिता या भाई बुरकापाल नक्सल हमले के आरोप में जेलों में कैद हैं. इन सभी महिलाओं का कहना है कि इन तीन सालों के दौरान अभी तक कायदे से इन लोगों की अदालत में पेशी भी नहीं हुयी है.
जेल से पेश नहीं
बुरकापाल नक्सली हमले में जिन लोगों को पुलिस ने आरोपी बनाया है उसमें 90 फीसदी लोग जगदलपुर जेल में कैद हैं. बाकी बचे हुए दंतेवाड़ा की जेल में हैं. इस मुक़दमे की सुनवाई जगदलपुर हाईकोर्ट में विशेष न्यायाधीश डीएन भगत की एनआईए (नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी / राष्ट्रीय जांच एजेंसी) कोर्ट में होती है.
न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद इस मामले से जुड़े एक अदालती दस्तावेज़ के मुताबिक इस मामले की सुनवाई में पुलिस इस मामले से जुड़े आरोपियों को अदालत में पेश नहीं करती है. इसके अलावा खुद पुलिस के अधिकारी अदालत में पेशी की तारीख पर नहीं आते थे. पुलिस की इस लापरवाही को देखते हुए जनवरी 2018 में विशेष न्यायधीश डीएन भगत की अदालत ने पुलिस फटकार भी लगाई थी और मेमो जारी कर उनकी नामौजूदगी का जवाब मांगा था. इसके बावजूद भी पुलिस के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया.
इस मामले में गांव वालो की पैरवी कर रहे वकील अरविन्द चौधरी बताते हैं, "इस मामले में सबसे पहली चार्जशीट 30 अक्टूबर, 2017 को पेश हुई थी. इसके लगभग छह महीने पहले पुलिस ने गांव वालों को गिरफ्तार किया था. सबसे पहले 113 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी जिसमें से दो लोग नाबालिग थे. फिर 6 अगस्त 2018 को पांच और लोगों को गिरफ्तार किया गया. 15 अक्टूबर 2019 को चार और लोगों की गिरफ्तारी हुई. लेकिन पुलिस ने तकरीबन तीन साल तक इन लोगों को अदालत में पेश ही नहीं किया. सिर्फ तीन या चार लोगों को खानापूर्ति को लिए पेश किया जाता था. पुलिस वाले हर बार यह कह देते थे कि उनके पास माकूल सुरक्षा इंतजाम नहीं है.”
चौधरी आगे बताते हैं, “पुलिस के इस रवैये को देखकर फरवरी 2020 में अदालत ने वारंट जारी कर दिया था और कहा था कि अगर सभी गांव वालों को एक साथ पेश नहीं कर सकते हैं तो उनको हिस्सों में पेश किया जाए जिससे मुक़दमे की कार्यवाही आगे बढ़ सके."
चौधरी आगे कहते हैं, "अदालत में आने के लगभग तीन साल बाद इस मामले में आरोप विरचित (चार्ज फ्रेम) करने की प्रक्रिया शुरु हुई है. जिसके बाद से गांव वालों को छोटे-छोटे हिस्से में पुलिस अदालत में पेश करने लगी. इसके चलते 120 में से 106 लोगों पर चार्ज फ्रेम हो चुके हैं. बाकी 14 अभी भी बाकी हैं. अगर ऐसा पहले ही हो गया होता तो इस मामले की सुनवाई काफी आगे पहुंच चुकी होती."
अंधाधुंध फायरिंग के बीच माओवादी एक दूसरे का नाम ले रहे थे
चाहे बुरकापाल का मामला हो या अन्य कोई नक्सली मामला हो इन मामलों से जुड़ी एफआईआर (प्राथमिकी) या उसके ब्यौरे में, पुलिस द्वारा एक बात ज़रूर लिखी जाती है कि मुठभेड़ के दौरान माओवादी या नक्सली एक दूसरे का नाम पुकार रहे थे. इन प्राथमिकियों या पुलिस के कथनों में "नक्सली एक दूसरे का नाम या एक दूसरे को भागते चिल्लाते हुए" ऐसे वाक्यों के बाद कुछ लोगों का नाम उसके आगे लिख दिए जाते है. अक्सर यह भी लिखा जाता है पुलिस पार्टी के बढ़ते दबाव को देखकर नक्सली एक दूसरे का नाम पुकारते हुए घने जंगल झाड़ी का फायदा उठाकर भाग गए.
हैरान करने की बात यह है कि ऐसे मामलों से जुड़े ऐसे हर दस्तावेज में एक सा घटनाक्रम है. ऐसा कैसे मुमकिन है कि अलग-अलग जगह पर हुई हर वारदात में नक्सली एक दूसरे का नाम पुकारने लगते हैं.
बुरकापाल मामले के दस्तावेजों में भी इसी तरह से लिखा गया है- "पुलिस पार्टी, पार्टी के बढ़ते दबाव को देखते हुए माओवादी एक दूसरे का नाम हिड़मा, सीतू, अर्जुन, मनीला, पाड़ा, आपु, वेट्टी हुर्रा, लक्खू पुकारते हुए अन्य नक्सलियों को कमांड करते हुए घने जंगल-झाड़ी का फायदा उठाकर भाग गए."
इस मसले को हमने आरोपितो के वकील अरविन्द चौधरी से समझने की कोशिश की. वो बताते हैं, "एफआईआर में पहले पुलिस वाले ऐसे मामलों में अज्ञात लिखते थे, लेकिन अब उन्होंने अपना तरीका बदल दिया है. अब वह जिस भी इलाके में ऐसी वारदातें होती हैं, उस इलाके के सक्रिय माओवादी, नक्सलियों का नाम एफआईआर में लिख देते हैं. भले ही उसने ऐसी घटना को अंजाम दिया हो या ना दिया हो. वह लिख देते हैं कि वो लोग थे और एक दूसरे का नाम लेकर चिल्ला रहे थे. इसमें दूसरी बात यह भी है कि माओवादी जिस इलाके में 4-5 महीने के लिए रह कर काम करते हैं, तो वहां के स्थानीय आदिवासियों के नाम रख लेते हैं. इस बात का फायदा पुलिस वाले उठाते हैं. कोई भी वारदात होती है तो वह ऐसे नाम लिखकर गांव वालों को उठा लाते हैं और खानापूर्ति कर देते हैं. इस तरह की गिरफ्तारियां कर पुलिस ऐसे मामलों में अपना टारगेट पूरा कर लेती है.”
न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मामले से जुड़े सीआरपीएफ के एक जवान जिन्होंने अपने कथन में लिखा था कि कुछ नक्सली एक दूसरे का नाम हिड़मा, सीतू, अर्जुन, मनीला आदि कह कर पुकार रहे थे, से बात करने की कोशिश लेकिन उन्होंने बात करने से मना कर दिया.
गौरतलब है, कि ऐसे मामलों में एफआईआर में दर्ज नाम पुलिस की इच्छानुसार घटते-बढ़ते रहते हैं. जिसका उदाहरण कवासी हिड़मे के मामले में देखने को मिला था. कवासी हिड़मे को जुलाई 2007 में एर्राबोर गांव में हुए नक्सली हमले में आरोपी बना दिया था जिसमें पुलिस के 23 जवानों की मृत्यु हो गयी थी. इस मामले में पुलिस ने लिखा था कि घटना के दौरान नक्सली अपने नाम लेकर पुकार रहे थे और 50 लोगों का नाम एफआईआर में लिखा था. लेकिन लगभग पांच महीने बाद, इस फेहरिस्त में तीन नाम और जोड़ दिए गए. यह कहकर कि पुलिस को और तीन नाम याद आ गए हैं. इनमें से एक नाम हिड़मे का भी था जिन्हें पुलिस ने साल 2008 में गिरफ्तार किया था.
आप कल्पना करें कि जब दोनों पक्षों की तरफ से गोलीबारी चल रही हो उस दौरान माओवादी अपने साथियों का नाम लेते हैं और सुरक्षाबल उसे सुनकर याद भी कर लेते हैं. और एक दो नहीं 50 नाम गोलीबारी के बीच में याद रख पाते हैं.
गौर करने वाली बात यह है कि साल 2015 में लगभग 7 साल जेल में बेवजह कैद रहने के बाद कवासी हिड़मे को दंतेवाड़ा की अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया था. जब वह गिरफ्तार हुई थी, तब उसकी उम्र 17 साल थी. उनका मामला पुलिस की बर्बरता और नक्सलियों को पकड़ने की आड़ में बेगुनाह आदिवासियों को झूठे आरोप लगा कर कैद करने का जीता जागता उदाहरण है.
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छत्तीसगढ़ आदिवासी प्रिजनर्स - 4 हिस्सों की एनएल सेना सीरीज का यह पहला पार्ट है. छत्तीसगढ़ की जेलों में बिना कानूनी कार्यवाही या सुनवाई के बंद आदिवासियों पर विस्तृत रिपोर्ट.
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यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 35 पाठकों ने योगदान दिया. यह मानस करमबेलकर, अभिमन्यु चितोशिया, अदनान खालिद, सिद्धार्थ शर्मा, सुदर्शन मुखोपाध्याय, अभिषेक सिंह, श्रेया भट्टाचार्य और अन्य एनएल सेना के सदस्यों से संभव बनाया गया था.
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