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घोषणापत्र पार्ट-1: काला धन, भ्रष्टाचार, रोजगार और महंगाई
किसी भी सरकार के कार्यकाल की समीक्षा करने का सबसे सही आधार उसका चुनाव घोषणापत्र हो सकता है. चुनाव घोषणापत्र ही वह दस्तावेज होता है जिसके जरिये तमाम राजनीतिक दल अपनी कार्ययोजना जनता को बताते हैं. इस दस्तावेज के जरिये राजनीतिक दल बताते हैं कि अगर उन्हें सत्ता मिली तो वे क्या-क्या करेंगे, उनकी क्या नीतियां होंगी, किन समस्याओं का समाधान उनकी प्राथमिकता होगी और उनकी नीतियां कैसे पुरानी सरकारों से अलग होंगी. लिहाजा जब भी कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करती है, उसका चुनाव घोषणापत्र जरूर खंगाला जाना चाहिए ताकि यह आंकलन किया जा सके कि उसने अपने ही वादों को किस हद तक पूरा किया है.
मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार भी अब अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाली है. आगामी चुनावों की उत्सुकता खुद मोदी सरकार को भी इतनी ज्यादा है कि हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय ने तमाम मंत्रालयों से उन परियोजनाओं की सूची मांगी है जिनका शिलान्यास चुनावों से पहले किया जा सकता है. ऐसे में यह समय मोदी सरकार के इस कार्यकाल के आंकलन का भी सबसे सही समय है. भाजपा ने 2014 में जो चुनाव घोषणापत्र जारी किया था उस पर मोदी सरकार कितना खरा उतरी है, इसकी पड़ताल न्यूज़लॉन्ड्री इस श्रृंखला में सिलसिलेवार करने जा रहा है.
2014 में हुए चुनावों से पहले भाजपा ने ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘अबकी बार मोदी सरकार’ जैसे नारे देते हुए कुल 64 पन्नों का लंबा-चौड़ा घोषणा पत्र जारी किया था. इसे भाजपा ने विज़न डॉक्युमेंट कहा था. इसकी प्रस्तावना में देश के गौरवशाली इतिहास का जिक्र करने के बाद भाजपा ने जिन मुद्दों की चर्चा की थी, उनमें पहला शीर्षक था ‘आसन्न चुनौतियां’. इस शीर्षक के अंतर्गत जो बातें तब तत्कालीन यूपीए सरकार के बारे में लिखी गई थी, आज उसमें यूपीए को एनडीए से रीप्लेस कर दिया जाय स्थितियां हूबहू नज़र आएंगी. उदाहरण के लिए:
‘यूपीए 1 और 2 के शासन वाले एक दशक को एक ही पंक्ति में ठीक से व्यक्त किया जा सकता है, ‘गिरावट का दशक’, जिसमें भारत में हर प्रकार की समस्याओं से निपटने में गिरावट ही आई है फिर चाहे वह शासन हो, आर्थिक स्थिति हो, राजनायिक अपमान हो, विदेश नीति की असफलता हो, सीमापार घुसपैठ हो, भ्रष्टाचार और घोटाले हों या महिलाओं के साथ होने वाले अपराध हों. सरकार और संवैधानिक इकाइयों का भारी दुरूपयोग और पूर्ण अवमानना हुई है. प्रधानमंत्री के पद की गरिमा का भी काफी पतन हुआ है.’
इन पंक्तियों में यदि यूपीए की जगह भाजपा सरकार लिख दिया जाए तो ऐसा लगता है जैसे यह पंक्तियां मोदी सरकार के लिए ही लिखी गई हों. आर्थिक मोर्चे पर बात करें तो रुपये की कीमत लगातार लुढ़क रही है और देश में बैंकों की हालत लगातार पतली होती जा रही है. विदेश नीति की बात करें तो नेपाल, मालदीव, श्रीलंका जैसे मित्र पड़ोसी देश भी चीन की तरफ झुकते दिखाई पड़ रहे हैं. सीमापार से घुसपैठ की बात करें तो इनमें भी कोई कमी नहीं आई है, बल्कि आए दिन शहीद होने वाले जवानों की संख्या काफी बढ़ गई है, हाल में तो एक जवान का क्षत-विक्षत शरीर देश को सौंपा गया है. संवैधानिक इकाइयों के दुरूपयोग की बात करें तो देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों ने ही खुलकर किसी सरकार पर अनावश्यक हस्तक्षेप के आरोप लगाए हैं. महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की बात करें तो इनमें भी कमी आने की जगह बढ़ोतरी ही हुई है और प्रधानमंत्री पद की गिरती गरिमा की बात करें तो इसमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई नए आयाम छुए हैं. वे पहले प्रधानमंत्री हैं जो सोशल मीडिया पर गाली-गलौज करने वालों को फॉलो करते हैं और खुद भी राज्यसभा में ऐसे आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं जिन्हें सदन की कार्रवाई से हटाना पड़ा था.
भ्रष्टाचार और घोटालों पर लगाम लगाने के मामले में जरूर मोदी सरकार को पिछली यूपीए सरकार से बेहतर कहा जा सकता है. हालांकि राफेल विमान की खरीद या नोटबंदी के बाद सामने आए मामलों से मौजूदा सरकार भी बड़ी मुसीबत में घिरती दिख रही है. लगातार कई फ्रॉड पूंजीपतियों के देश से फरार हो जाने के चलते भी मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर रही है. राज्य स्तर पर भी तमाम भाजपा सरकारें भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों से घिरती ही रही हैं लेकिन इस सब के बावजूद भी मोदी सरकार पर उस तरह के घोटालों के आरोप फिलहाल नहीं हैं जैसे पिछली यूपीए सरकार पर लगातार लगते रहे थे.
मंहगाई:
भाजपा के घोषणा पत्र पर आगे बढ़ें तो ‘आसन्न चुनौतियां’ के बाद अगला शीर्षक मिलता है: ‘मंहगाई.’ इस शीर्षक के तहत लिखा गया था, ‘खाने-पीने के सामान के बढ़ते दामों ने घरों का बजट बिगाड़ दिया है और कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की देखरेख में कुल मिलाकर मंहगाई बहुत तेजी से बढ़ी है. यहां तक कि लाखों-करोड़ों लोगों की खाद्य और पोषण सुरक्षा खतरे में पड़ गई है. हालांकि, कांग्रेसनीत यूपीए सरकार संवेदनहीन बनी रही और लोगों की दशा की उसने कोई परवाह नहीं की वह तो अल्पकालिक और दिशाहीन क़दमों में खुद को उलझाए रही.’
मौजूदा दौर में मंहगाई को देखते हुए कई लोगों को यह लग सकता है कि भाजपा के घोषणा पत्र में 2014 में लिखी गई ये बातें आज उसकी ही सरकार पर लागू होती नज़र आ रही हैं. लेकिन आंकड़े ऐसा नहीं कहते. भले ही बीते साढ़े चार सालों में सब्जियों से लेकर दालों तक के दाम कई बार अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचे हैं लेकिन यदि मंहगाई दर के औसत आकड़ों को देखा जाए तो यूपीए सरकार की तुलना में मोदी कार्यकाल के दौरान यह दर कम ही रही है. ‘थोक मूल्य मंहगाई दर’ पर नज़र डालें तो मोदी सरकार के शुरुआती चार सालों में यह दर 0.59 प्रतिशत रही है. जबकि यूपीए-2 के शुरुआती चार सालों में यह दर 7.4 प्रतिशत रही थी. तमाम अर्थशास्त्री मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के कम दामों के चलते मोदी सरकार को यह लाभ मिला है. हालांकि यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि मोदी सरकार ने मंहगाई दर तय करने लिए आधार वर्ष को 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था.
‘उपभोक्ता मूल्य मंहगाई दर’ पर नज़र डालें तो यह भी यूपीए सरकार की तुलना में मोदी सरकार के दौरान कम ही रही है. लेकिन इन आकड़ों का यह भी मतलब नहीं कि महंगाई के मामले में मोदी सरकार का प्रदर्शन बहुत बेहतर रहा हो. विशेष तौर से अगर डीज़ल और पेट्रोल की बात करें तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट आने के बावजूद भी जनता को इसका सीधा लाभ नहीं मिला है. इसके अलावा मंहगाई के अन्य पैमानों पर भी सरकार के पास अपनी उपलब्धियां दर्शाने को ज्यादा कुछ नहीं है और यही कारण है कि भाजपा मोबाइल डाटा के दामों में गिरावट को ही अपनी उपलब्धि बताने की हास्यास्पद कोशिश कर रही है.
अपने घोषणा पत्र में भाजपा ने यह भी लिखा था कि ‘श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली मुख्यमंत्रियों की समिति ने खाद्य महंगाई पर 2011 में ही अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी. दुर्भाग्य से उस रिपोर्ट पर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने कोई काम नहीं किया.‘
मंहगाई पर लगाम लगाने के लिए जिस रिपोर्ट का जिक्र भाजपा ने किया था, उस पर खुद उनकी ही सरकार ने कितना काम किया, इसका कोई असर मोदी कार्यकाल में नहीं देखा गया. ‘जमाखोरी और कालाबाज़ारी रोकने के लिए कड़े उपाय करना और विशेष अदालतें स्थापित करना‘ भी अपने घोषणापत्र में भाजपा ने मंहगाई से निपटने का सबसे पहला उपाय बताया था. लेकिन इस पैमाने पर भी मोदी सरकार विफल ही नज़र आती है क्योंकि ऐसी विशेष अदालतों को स्थापित करने की दिशा में कोई भी ठोस कदम सरकार द्वारा नहीं उठाए गए.
मंहगाई से निपटने के लिए भाजपा ने अपने घोषणापत्र में ‘दाम स्थिरीकरण कोष’ की स्थापना करने का भी वादा किया था. यह कोष स्थापित भी किया गया है और इस लिहाज से देखें तो अपना यह चुनावी वादा मोदी सरकार ने पूरा भी किया है. घोषणा पत्र में किए गए करीब डेढ़ सौ वादों में से मोदी सरकार ने बेहद चुनिंदा वादे ही अब तक पूरे किये हैं और यह उनमें से एक है. अन्य पूरे किये गए और अधूरे रह गए वादों का जिक्र हम इस श्रृंखला में आगे विस्तार से करेंगे.
रोजगार और उद्यमिता:
घोषणा पत्र में आगे बढ़ें तो ‘मंहगाई’ के बाद ‘रोजगार और उद्यमिता’ का जिक्र मिलता है. इस क्षेत्र में भी मोदी सरकार का प्रदर्शन औसत से नीचे ही रहा है. हालांकि कई स्वरोज़गार योजनाएं इस सरकार ने शुरू जरूर की हैं लेकिन धरातल पर उनका असर अप्रभावी ही कहा जाएगा. इसका हालिया उदाहरण तो यही है कि जिस ‘स्किल इंडिया’ अभियान को मोदी सरकार ने अपनी बड़ी उपलब्धि बताया है उसमें तरह-तरह के फर्जीवाड़े की बातें सामने आ रही हैं. ऐसे कई लोगों को इस योजना का लाभार्थी दर्शाया गया है जिनको कभी इससे जोड़ा ही नहीं गया. इस तरह का फर्जीवाड़ा इस पूरी योजना पर ही कई सवाल खड़े कर देता है.
स्वरोज़गार से इतर यदि नियमित रोज़गार की बात करें तो मोदी सरकार और भी ज्यादा विफल नज़र आती है. दो करोड़ रोज़गार सालाना देने का वादा करके सत्ता में आई मोदी सरकार इस दिशा में कितना काम कर पाई इसका अंदाज़ा प्रधानमंत्री मोदी के बयानों से ही लग जाता है. रोज़गार के सवाल पर कभी वे कहते हैं कि ‘जो व्यक्ति पकौड़े बेचता है क्या उसे रोज़गार नहीं माना जाएगा’, तो कभी वे संसद बोलते हैं कि हर साल जो हजारों लोग वकील बन रहे हैं वे भी कई अन्य लोगों को अपने साथ रोज़गार दे रहे हैं. भारतीय न्यायालयों की स्थिति से जो व्यक्ति थोडा-बहुत भी परिचित होगा वह जानता है कि नए-नए वकील बने लोगों के लिए अपना खुद का खर्चा निकाल पाना भी बहुत बड़ी चुनौती होती है. ऐसे में वह व्यक्ति अपने साथ किसी अन्य को भी रोज़गार दे रहा है, यह मानना अति आशावादी होने से ज्यादा कुछ नहीं है.
प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में जवाब देते हुए ऑटो चलाने वालों से लेकर वकीलों के मुंशियों तक को उस आंकड़े में शामिल कर लिया जिसे उनकी सरकार ने रोज़गार दिया. लेकिन दिलचस्प यह है कि ऐसे हास्यास्पद आंकड़े देने के बाद भी सरकार वह आंकड़ा नहीं छू सकी जिसका वादा (सालाना दो करोड़) उसने लोगों से किया था.
रोज़गार के पैमाने पर मोदी सरकार पर एक बड़ा बट्टा नोटबंदी के दौरान भी लगा है. इस फैसले के चलते कई लोगों का रोज़गार छिन गया था और इसलिए मोदी सरकार को रोज़गार सृजन का श्रेय नहीं बल्कि रोज़गार छीनने का आरोप भी झेलना पड़ रहा है. तमाम मंत्रालयों में कई सालों से अस्थायी नौकरी कर रहे लोगों के नियमितीकरण की दिशा में भी मोदी सरकार का रवैय्या पिछली सरकारों की तरह ही रहा है.
भ्रष्टाचार:
भाजपा के घोषणापत्र में भ्रष्टाचार भी एक अहम् मुद्दा था. इस बारे में घोषणापत्र में लिखा गया था, ‘भ्रष्टाचार कमज़ोर शासन का नतीजा होता है. इसके साथ ही यह सत्ता में बैठे लोगों की बुरी नीयत को भी प्रकट करता है. कांग्रेसनीत यूपीए सरकार में फैला सारा व्यापक भ्रष्टाचार ‘राष्ट्रीय संकट’ बन गया है. हम ऐसा तंत्र स्थापित करेंगे जो भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही समाप्त कर देगा.‘
2014 में जब चुनाव होने को थे, उस वक्त भ्रष्टाचार देश में एक बड़ा मुद्दा था. तत्कालीन सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप आए दिन लग रहे थे और जनता इससे त्रस्त हो चुकी थी. इस लिहाज से देखें तो मोदी सरकार की यह सफलता रही है कि भ्रष्टाचार के ऐसे आरोपों से वह अब तक बची रही है. हालांकि कई बैंक घोटाले, राफेल मामले और सरकारी पैसा लूटकर देश छोड़ने वालों की मदद करने जैसे आरोप इस सरकार पर लगे हैं लेकिन आम जनता के बीच आज भी मोदी सरकार की छवि भ्रष्टाचार के मामले में पिछली सरकारों से बेहतर ही है.
निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार की बात करें तो इसमें कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ है. आम आदमी को अपनी जरूरतों के लिए जिन विभागों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, उनमें आज भी भ्रष्टाचार उतना ही है जितना पिछली सरकारों के दौरान रहा है. सरकारी विभागों में घूसखोरी आम प्रथा पहले भी थी, आज भी है. मोदी सरकार इस मोर्चे पर कोई नया बदलाव लाने में असफल सिद्ध हुई है. आयकर भरने वालों की संख्या में कुछ इजाफा जरूर हुआ है और इसका श्रेय मोदी सरकार को जरूर दिया जाना चाहिए.
काला धन:
भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र का यह ऐसा मुद्दा है जिसकी चुनावों से पहले जमकर चर्चा हुई थी. जनता ने ख्वाब देखा था कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो विदेशों में पड़ा काला धन वापस आएगा लेकिन इसी मुद्दे पर जनता को सबसे ज्यादा निराशा हाथ लगी. जो भाजपा चुनावों से पहले कहती थी कि ‘काला धन वापस आया तो हर देश वासी के खाते में 15-15 लाख रुपये ऐसे ही आ जाएंगे’ उसी भाजपा के अध्यक्ष ने चुनावों के बाद कहा कि ’15 लाख रुपये मिलने की बात सिर्फ एक चुनावी जुमला थी.’
काले धन के बारे में भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में लिखा था, ‘भ्रष्टाचार की गुंजाइश न्यूनतम करके, हम काला धन पैदा न होने को सुनिश्चित करेंगे. भाजपा विदेशी बैंकों और समुद्रपार के खातों में जमा काले धन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध है. इस काम के लिए और मौजूदा कानूनों में बदलाव करने या नए कानून बनाने के लिए हम एक कार्यबल स्थापित करेंगे. काले धन को वापस भारत लाने के कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा. हम विदेशी सरकारों से भी काले धन से जुडी जानकारियां हासिल करने के लिए व्यापक पहल करेंगे.‘
इन पंक्तियों में कही गई बातों में से कुछ भी कर पाने में मोदी सरकार पूरी तरह से विफल रही है. काले धन को बहुत बड़ा मुद्दा बनाने के बावजूद भी प्रधानमंत्री मोदी चुनाव जीतने के बाद इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा सके हैं. विदेशों में पड़ा काला धन तो दूर, देश में ही मौजूद काले धन पर लगाम लगाने के लिए जो कदम मोदी सरकार ने उठाए वह पूरी तरह से बेअसर साबित हुए. नोटबंदी ऐसा ही एक कदम था जिसके बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि इससे काले धन पर बड़ी चोट होगी. लेकिन रिज़र्व बैंक का आंकड़ा कहता है कि 99.3 फीसदी नोट वापस बैंकों तक पहुंच चुके हैं और इससे साफ़ है कि नोटबंदी का काले धन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ है. इस आंकड़े के सामने आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी भी नोटबंदी को काले धन पर चोट के लिए उठाया कदम नहीं कहते हैं, जबकि पहले वे कई-कई बार ऐसा कहा करते थे.
विपक्ष में रहते हुए तमाम भाजपा नेता और खुद प्रधानमंत्री मोदी भी विदेशों में पड़े काले धन के आंकड़े को हजारों करोड़ बताया करते थे. लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने इस आंकड़े पर कोई चर्चा नहीं की है. घोषणा पत्र में कहा गया था कि ‘काले धन को वापस भारत लाने के कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा‘. प्राथमिकता के आधार पर तो दूर, मोदी सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करने को है और अब तक भी इस दिशा में कुछ नहीं कर सकी है.
कमज़ोर वितरण:
चुनावी घोषणा पत्र के इस हिस्से में भाजपा ने लिखा था, ‘हम जहां कहीं भी जाते हैं हर जगह बाधाएं ही दिखती हैं. हम रोजाना इसे अनुभव करते हैं- सरकारी कार्यालयों में जनता के छोटे से छोटे काम में अडचनें हैं, अदालतों में मुकदमों का ढेर लगा है, इसी तरह से और जगह भी हैं. इसी प्रकार, हम अधूरे काम और काम पूरा न हो पाने की संस्कृति के लिए जाने जाते हैं. हमारे पास पानी है, लेकिन उसे ले जाने के लिए पाइप लाइन नहीं है. हमारे पास स्कूल हैं, लेकिन शिक्षक नहीं हैं, हमारे पास कंप्यूटर और मशीनें हैं लेकिन बिजली नहीं है, हमारे पास वैज्ञानिक हैं लेकिन प्रयोगशालाएं नहीं हैं, उपकरण हैं, लेकिन उन पर काम करने के लिए कोई नहीं है. इससे कामकाज की गति कम होती है और परिणामस्वरूप समय, धन और ऊर्जा की बर्बादी होती है. सही काम करने के लिए सही दिशा भी होनी जरूरी है, लेकिन उसका अभाव है. इसे प्राथमिकता के आधार पर हासिल करना होगा.‘
इस पैमाने पर भी मोदी सरकार का काम पिछली सरकारों से अलग नहीं रहा है. जिन बातों का जिक्र भाजपा ने इन पंक्तियों में किया था, वह बातें आज भी जस-की-तस बनी हुई हैं. कुछ नई प्रयोगशालाओं, नए भवनों और नई परियोजनाओं की शुरुआत इस सरकार के कार्यकाल में हुई है लेकिन इन कामों की गति वैसी ही रही है जैसी पिछली तमाम सरकारों के दौरान थी. इसलिए मोटे तौर पर तस्वीर आज भी वैसी ही है जैसी तस्वीर भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में पिछली सरकारों पर निशाना साधते हुए दर्शायी थी.
न्यायालयों की स्थिति और जजों की भारी कमी लंबे समय न्यायापालिका के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. इस चुनौती से निपटने के लिए भी मोदी सरकार कोई ठोस क़दम नहीं उठा सकी है. उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्तियों को लेकर मोदी सरकार एक कानून जरूर लायी थी लेकिन उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था. इसके अलावा तो मोदी सरकार पर न्यायपालिका को सुधारने की जगह उसे बिगाड़ने और अनावश्यक हस्तक्षेप के आरोप ही ज्यादा लगे हैं.
(भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में किए गए अन्य वादों पर मोदी सरकार कितना खरी उतरी है, इसकी चर्चा इस श्रृंखला के अगले लेखों में.)
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