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कोरेगांव-भीमा: दांवपेंच और बेजा क़ानूनी इस्तेमाल की बुनियाद पर खड़ा केस
महाराष्ट्र की जेलों में जहां हज़ारों करोड़ों का घोटाला करने वाले नेताओं या जेल में कैद अंडरवर्ल्ड माफियाओं को टीवी, एसी, फ्रिज, मोबाइल फ़ोन, घर का खाना जैसी सुविधायें मुहैया करवा दी जाती हैं वहीं 83 साल के विचाराधीन कैदी स्टैन स्वामी को पानी पीने के लिए एक अदद स्ट्रॉ / सिपर की मांग खारिज कर दी जाती है. 70 साल के गौतम नवलखा को नज़र का चश्मा मुहैया कराने की गुज़ारिश पुलिस सिरे से खारिज कर देती है. लेकिन इन दोनों के साथ पुलिस और न्याय तंत्र द्वारा किए गए व्यवहार पर आपको ज्यादा हैरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये दोनों एक ऐसे मामले में जेल में कैद हैं जिसमें शुरुआत से लेकर अब तक इसी तरह क़दम-क़दम पर मानवधिकारों का उल्लंघन, नियमों की अनदेखी और कानूनों का बेजा इस्तेमाल देखने को मिला है.
हम बात कर रहे हैं कोरेगांव भीमा मामले की. इस घटना को हुए आज लगभग तीन साल हो गए. घटना के कुछ ही महीनों बाद पुलिस ने इसके तार अतिवादी नक्सलवाद से जोड़ दिये थे. अब तक इस मामले में 16 मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकीलों और बुद्धिजीवियों को अतिवादी वामपंथी विचारधारा का समर्थक बता कर गिरफ्तार कर चुकी है. लेकिन शुरुआती दौर से ही इस मामले में कानूनी और मानवाधिकार उल्लंघन की स्थिति देखने को मिली है. तीन साल बाद हमने एख बार फिर से उन तमाम गड़बड़ियों का एक जायजा लिया है.
गड़बड़ी नंबर- 1
इस मामले में सबसे पहला कानूनी उल्लंघन यह हैं कि कोर्ट द्वारा सर्च वारंट (तलाशी वारंट) जारी नहीं करने के बावजूद भी पुणे पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार लोगों के यहां दबिश दी. गौरतलब है कि 9 मार्च 2018 को इस मामले के जांच अधिकारी शिवाजी पवार ने पुणे के जेएमएफसी (जुडिशल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास), कोर्ट नंबर-4 में तलाशी वारंट की याचिका दायर की थी. पवार ने अपनी याचिका में लिखा था कि इस मामले से जुड़े आरोपियों के खिलाफ उनके पास कोरेगांव-भीमा में हुए दंगों से सम्बंधित होने के दस्तावेज हैं. इसलिए उन्हें आरोपियों के पास मौजूद उपकरणों को ज़ब्त करना है. उन्होंने यह भी लिखा था कि आरोपी सीआरपीसी की धारा 91 के तहत नोटिस जारी करने पर भी पुलिस के साथ जांच में सहयोग नहीं करेंगे. गौरतलब है कि पवार ने अपनी याचिका में यह दलील आरोपियों को धारा 91 के तहत नोटिस भेजे बिना ही लिख दी थी.
पवार की इस याचिका को अदालत ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि पवार ने आरोपियों को बिना नोटिस भेजे ही पूर्वानुमान लगा लिया कि वो जांच में सहयोग नहीं करेंगे. इस याचिका के लगभग एक हफ्ते पहले भी पवार ने इसी तरह की एक याचिका दायर की थी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया था.
यानी दो बार तलाशी वारंट खारिज होने के बावजूद पुणे पुलिस ने 17 अप्रैल, 2018 को सुरेंद्र गडलिंग, रोना विल्सन, सुधीर ढवले और कबीर कला मंच के कुछ सदस्यों के यहां छापा मारकर उनके इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों (कंप्यूटर, हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, शादी, जन्मदिन, फोटो की निजी सीडी/ डीवीडी आदि) को ज़ब्त कर लिया था. सुरेंद्र गडलिंग की भांजी का लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिया था जिसमें उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का प्रोजेक्ट था.
इसी तरह 28 अगस्त, 2018 को वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वर्नन गोंज़ाल्विज़ और गौतम नवलखा के घर भी बिना वारंट के दबिश दी गई थी.
गड़बड़ी नंबर- 2
इस मामले में 17 अप्रैल 2018 को ज़ब्ती की कार्रवाई को अंजाम देने के लिए पुलिस गवाहों को पुणे से ही साथ लेकर गई थी. कानूनन यह गलत है. कानून के मुताबिक जिस घर में दबिश और ज़ब्ती हुई है वहां पंचनामें के लिए पंच उसी इलाके के दो गणमान्य नागरिक होने चाहिए. कायदे से पुणे पुलिस ने जब रोना विल्सन के यहां दिल्ली में दबिश देकर ज़ब्ती की थी तो उन्हें मुनिरका इलाके के ही दो गणमान्य नागरिकों को गवाह बनाकर अपने साथ विल्सन के घर ले जाना चाहिए था.
कानूनन दबिश के दौरान जब्त उपकरणों की एक फेहरिस्त स्थानीय अदालत में जमा करनी पड़ती हैं. पुणे पुलिस ने विल्सन, गडलिंग, ढवले के घरों से ज़ब्त किये गए उपकरणों की कोई जानकारी उनके शहरों की स्थानीय अदालत में जमा नहीं की. सुधीर ढवले के मुंबई स्थित दफ्तर पर पुलिस ने दबिश के दौरान ढवले का लैपटॉप तो ज़ब्त किया ही, साथ में वहां मौजूद अन्य लोगों के लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिया. असल में ढवले का दफ्तर मुंबई के बाहर से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के रुकने का एक ठिकाना है. वहां लोग अक्सर आते जाते रहते हैं. उस दिन छापे के दौरान वहां मौजूद अन्य लोगों के लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिए गए थे.
कहने को तो पुणे पुलिस अपने साथ एक साइबर एक्सपर्ट और एक वीडियोग्राफर लेकर गयी थी लेकिन विल्सन, गडलिंग, ढवले के कंप्यूटर, हार्ड डिस्क जैसे उपकरणों को ज़ब्त करने के बाद पुणे पुलिस ने किसी को भी उन उपकरणों की हैश वैल्यू नहीं बताई. कानूनन पुणे पुलिस को अपने साइबर एक्सपर्ट के ज़रिये उन उपकरणों की मौके पर हैश वैल्यू निकलवा कर देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वह भी उन उपकरणों की जिनके बारे में पुणे पुलिस दावा करती है कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश के पत्र मिले हैं.
इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 के अंतर्गत ज़ब्त किये गए इलेक्ट्रॉनिक सबूतों की विश्वसनीयता को बनाये रखने के लिए ज़ब्ती के दौरान लैपटॉप, हार्ड डिस्क व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की हैश वैल्यू या प्रिंट आउट निकाल कर दिया जाता है और उसके बाद ही यह उपकरण फॉरेंसिक लैब में भेजे जाते हैं. जैसे हर इंसान की उंगलियों के निशान अलग होते हैं उसी तरह हर उपकरण की हैश वैल्यू अलग होती है. हैश वैल्यू यह समझने में मदद करती है कि उपकरण में बाद में अलग से कोई दस्तावेज़ तो नहीं प्लांट कर दिए गए. क्योंकि अगर छेड़छाड़ होती है तो हैश वैल्यू बदल जाती है.
उपकरणों की ज़ब्ती करने के बाद 18 अप्रैल को ये उपकरण पुणे लाए गए. उसके बाद यह उपकरण जांच के लिए पुणे स्थित रीजनल फॉरेंसिक लैब भेजे गए जहां 25 अप्रैल को दस्तावेज़ों की क्लोन कॉपी पुलिस को प्राप्त हुयी. पुलिस का दावा है कि रोना विल्सन के कंप्यूटर से उनके हाथ प्रधानमंत्री को मारने की साजिश से जुड़ा पत्र मिला था.
हैरत की बात यह है कि पुलिस को 25 अप्रैल, 2018 को देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश के बारे में पता चल गया था तो उन्होंने रोना विल्सन और अन्य लोगों की गिरफ्तारी उसके 41 दिन बाद 6 जून को क्यों की. पुणे पुलिस की कार्रवाई उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है. 41 दिनों के दौरान गिरफ्तारी तो दूर की बात पुलिस ने सवाल जवाब करने के लिए भी विल्सन, गडलिंग और ढवले को नहीं बुलाया था.
गड़बड़ी नंबर- 3
रोना विल्सन के घर 17 अप्रैल को की गयी ज़ब्ती के पंचनामे के अनुसार कार्रवाई सुबह 6:05 बजे शुरू हुयी और दोपहर दो बज कर दो मिनट पर पंचनामा पूरा कर सभी उपकरण सील कर दिए गए थे. पुणे पुलिस ने जिस कैमरे से पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की थी उसके मेमोरी कार्ड को भी एक एंटी स्टैटिक बैग में बंद कर सील कर दिया था. लेकिन फॉरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार पुलिस द्वारा लाये गए मेमोरी कार्ड को आखिरी बार शाम पांच बजकर बाइस मिनट पर इस्तेमाल किया गया था. यह इशारा करता है कि पंचनामें की प्रक्रिया और सील करने के बाद भी मेमोरी कार्ड का इस्तेमाल किया गया था. इसी तरह फॉरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार रोना विल्सन के कंप्यूटर को भी उस दिन 11:16 से लेकर 11:20 बजे के दौरान चार मिनट के लिए खोला गया था.
गड़बड़ी नंबर- 4
कानूनन अगर पुलिस किसी व्यक्ति को दूसरे शहर जाकर गिरफ्तार करती है तो गिरफ्तारी के बाद उस शहर की स्थानीय अदालत में हाज़िर करना होता है और ट्रांजिट रिमांड लेकर ही वहां से जाना होता है. बिना ट्रांज़िट रिमांड के पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति को एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जा सकती. 6 जून, 2018 को जब पुलिस ने सुरेंद्र गडलिंग को नागपुर से गिरफ्तार किया लेकिन उन्हें नागपुर की अदालत में पेश नहीं किया. पुणे पुलिस गडलिंग को अमरावती ले गयी और वहां की एक अदालत में उन्हें पेश किया. जब अदालत ने पुलिस की इस हरकत पर आपत्ति जताई और उन्हें ट्रांजिट रिमांड देने से मना कर दिया तो पुलिस गडलिंग को नागपुर हवाई अड्डे लेकर आयी और उन्हें बिना ट्रांज़िट रिमांड के पुणे ले गई. गडलिंग के अलावा पुलिस शोमा सेन को भी बिना ट्रांज़िट रिमांड के अपने साथ लेकर आयी थी.
इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों के परिवारों को पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी का मेमो भी नहीं दिया था. 7 जून, 2018 को जब पुलिस ने सभी लोगों को पुणे की अदालत के सामने पेश किया तो उनके पास वकील भी नहीं था. पुलिस ने खुद ही अपनी तरफ से आरोपियों के लिए एक वकील को चुन लिया था. गडलिंग, जो कि पेशे से खुद भी एक वकील हैं, ने पुलिस द्वारा चयनित वकील को उनके मामले की पैरवी करने का विरोध किया था. लेकिन पुलिस द्वारा चयनित वकील का वकालतनामा पहले से ही दायर किया जा चुका था जिसके चलते इस मामले में कुछ ना हो सका.
इसके मद्देनज़र नागपुर बार एसोसिएशन ने एक प्रस्ताव पारित कर पुणे की अदालत से अपील की थी गडलिंग के कनिष्ट व अन्य वकीलों को उनसे मिलने की इज़ाज़त दी जाए जिसे अदालत ने मान लिया था. बाद में गडलिंग और उनके करीबियों ने पुलिस द्वारा चयनित वकील को ढूढ़ने की बहुत कोशिश की लेकिन उनका पता नहीं चला. स्टैन स्वामी, सुधा भारद्वाज, शोमा सेन को भी पुलिस बिना स्थानीय अदालतों में पेश किए, बिना ट्रांज़िट रिमांड के ले आयी थी.
गड़बड़ी नंबर- 5
क़ानूनन अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसे पुलिस गिरफ्तारी के कारण के दस्तावेज़ मुहैया कराती है और यह दस्तावेज़ उस भाषा में होते हैं जिसे व्यक्ति समझ सके. लेकिन कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार हुए वरवर राव, सुधा भारद्धाज, रोना विल्सन, गौतम नवलखा आदि को यह दस्तावेज़ मराठी में दिए गए थे जबकि इन्हें मराठी समझ में नहीं आती है.
गड़बड़ी नंबर- 6
सुरेंद्र गडलिंग को पुलिस हिरासत में दिल की बीमारी हो गयी थी, जिसके चलते उन्हें पुणे के नायर अस्पताल में 3-4 दिन के लिए भर्ती किया गया था. लेकिन उनकी पत्नी को पुलिस ने ना उनसे मिलने की इज़ाज़त दी, ना बात करने की. वह दिन भर उनके कमरे के बाहर बैठी रहती थीं. उन्हें सिर्फ दूर से अपने पति को देखने की इज़ाज़त थी.
उनके अस्पताल और दवाइयों का खर्च भी उनकी पत्नी ने उठाया था, बावजूद इसके कि गडलिंग के इलाज की ज़िम्मेदारी पुलिस और प्रशासन की थी. पुलिस ने गडलिंग की सेहत की जानकारी से सम्बंधित मेडिकल रिकार्ड्स भी उनकी पत्नी को देने से मना कर दिया था. जब उन्होंने सूचना के अधिकार के ज़रिये उनकी मेडिकल रिपोर्ट हासिल करनी चाही तो अस्पताल ने जवाब में यह लिखकर मना कर दिया कि वह किसी अन्य व्यक्ति के मेडिकल रिकार्ड्स की जानकारी उन्हें नहीं दे सकते.
इसी तरह महेश राउत, जो बहुत समय से पेट की बीमारी ग्रसित थे, कि डॉक्टर की सलाह पर बायोप्सी की गयी थी. लेकिन पुलिस ने उन्हें उनकी बायोप्सी रिपोर्ट देने से मना कर दिया और बस कहा कि वह ठीक हैं. कई बार उनके वकीलों ने अदालत से उन्हें मेडिकल रिपोर्ट मुहैया कराने की अपील की लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
गड़बड़ी नंबर- 7
शोमा सेन गठिया (आर्थराइटिस) की बीमारी से ग्रसित हैं. जेल में मौजूद भारतीय पद्धति के शौचालय में जाना उनके लिए बेहद तकलीफदेह था, जिसके चलते उन्होंने सर्जिकल कमोड मुहैया कराने की अदालत से अपील की थी, अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि जेल के नियम अगर इस बात की इज़ाज़त देते हैं तो उन्हें सर्जिकल कमोड मुहैया कराया जाए. इसके बाद शोमा सेन की बेटी दो बार जेल में सर्जिकल कमोड लेकर गयी थीं लेकिन उन्हें लौटा दिया गया. तीसरी बार जब उनकी बेटी फिर से गईं तब जाकर जेल प्रशासन ने उनसे वह कमोड लिया. लगभग एक महीने बाद उनको वह कमोड मुहैया हुआ.
इसी तरह अदालत के निर्देश के बाद भी जेल प्रशासन ने यह कह कर स्वेटर गडलिंग को देने से मना कर दिया कि जेल में ऊनी स्वेटर मुहैया नहीं कराये जा सकते और जेल में सिर्फ थर्मल स्वेटर ही दिए जा सकते हैं. इसके बाद जब उनकी पत्नी थर्मल स्वेटर लेकर गयीं तो उन्होंने यह कहकर वापस कर दिया कि जेल में पूरी बांह का स्वेटर नहीं दिया जा सकता और वो जाकर आधी बांह का स्वेटर लेकर आएं.
गड़बड़ी नंबर- 8
इस मामले में स्वामी विवेकानन्द तक की किताबों को अभियोजन ने जेल में मौजूद आरोपियों को यह दलील देकर देने से मना कर दिया था कि वो किताबें प्रतिबंधित हो सकती हैं.
गड़बड़ी नंबर- 9
कानूनन जिस मामले में यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज़ एंड प्रिवेंशन एक्ट) की धारा लग जाती है उस मामले कि सुनवाई विशेष अदालत में, विशेष प्रकिया के मद्देनज़र की जाती है. अगर विशेष अदालत ना हो तब मामले की सुनवाई सामान्य अदालत में सामान्य कार्यप्रणाली से की जाती है. लेकिन कोरेगांव-भीमा के मामले में पुणे में एनआईए की विशेष अदालत होने के बावजूद भी यह मुकदमा सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) में चलाया गया और वही आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल किया गया.
गौरतलब है कि सीधे-सीधे सेशन कोर्ट में आरोपपत्र को दाखिल करने को लेकर कानून में मनाही है, इसके बावजूद भी इस मामले में आरोपपत्र को सीधे सेशन कोर्ट में दाखिल कर दिया गया. अगर कानूनी प्रक्रिया से देखा जाए तो आरोपपत्र अधूरा है, क्योंकि दो साल बाद भी अभी तक आरोपियों को हार्डडिस्क व अन्य ज़ब्त किये गए उपकारणों की मिरर इमेज नहीं दी गयी है.
गड़बड़ी नंबर- 10
इस मामले में आरोपपत्र दायर करने की अवधि को बढ़ाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पुणे की अदालत को फटकार लगायी थी. जब इस मामले में 90 दिन तक आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ था तो अवधि को 90 दिन और बढ़ाने के लिए अभियोजन पक्ष के वकील ने आवेदन किया था. आवेदन शुक्रवार को दाखिल किया गया था और आरोपियों को जेल में उसी दिन बताया गया कि अगले दिन शनिवार को उन्हें अदालत में अवधि बढ़ाने की सुनवाई के लिए पेश होना है. स्वाभाविक है कि जेल से अरोपी अपने वकीलो तक इस बाद की सूचना नहीं पहुंचा सकते थे और पुलिस की तरफ से भी आरोपियों के वकीलों को सूचित नहीं किया गया था. शनिवार को जब गिरफ्तार लोगों को अदालत में पेश किया गया तो उन्होंने अभियोजन कि इस जल्दबाज़ी का विरोध जताते हुए 2-3 दिन की मोहलत मांगी थी ताकि वे अपने वकीलों को इत्तेला कर सकें, लेकिन उसके बावजूद विशेष सुनवाई अगले दिन रविवार को ही कर दी गयी.
गड़बड़ी नंबर- 11
14 अप्रैल, 2019 को इस मामले में गौतम नवलखा ने एनआईए (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) के सामने आत्मसमर्पण किया था. उन्हें उस वक़्त तिहाड़ जेल में रखा गया था और उसी दौरान उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी. जिस दिन उनकी जमानत की सुनवाई होने वाली थी उसके एक दिन पहले बिना अदालत की इजाजत लिए उन्हें तिहाड़ जेल से निकालकर मुंबई ले जाया गया. पुलिस की इस हरकत पर हाईकोर्ट ने फटकार लगाते हुए उनसे जवाब भी तलब किया था.
गड़बड़ी नंबर- 12
पुणे पुलिस ने आनंद तेलतुंबड़े को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए चार हफ़्तों के सरंक्षण के बावजूद भी गिरफ्तार कर लिया था. हालांकि बाद में पुणे सेशन कोर्ट ने उनकी रिहाई को गैरकानूनी करार देते हुए उनकी तुरंत रिहाई के आदेश दिए थे.
गड़बड़ी नंबर- 13
इस मामले को जिस तरह से एनआईए को सौपा गया है वह भी कई सवाल खड़े करता है. गौरतलब हैं कि यूएपीए का मामला दर्ज होने पर राज्य सरकार को पांच दिन के भीतर केंद्र सरकार को सूचित करना होता है. फिर केंद्र सरकार 15 दिन के भीतर उस पर निर्णय लेकर राज्य सरकार को बताती है कि जांच राज्य पुलिस करेगी या एनआईए. अगर सरकार 15 दिन में जवाब नहीं देती है तो मामला अपने आप राज्य सरकार के पास चला जाता है.
एक बार जांच राज्य पुलिस के पास जाने के बाद उसे दोबारा नहीं लिया जा सकता. असल में साल 2019 में एनआईए पुणे पुलिस द्वारा की जा रही जांच से संतुष्ट थी और जांच की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी. लेकिन नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र में नयी सरकार बन गई. उसने कोरेगांव-भीमा की जांच को संदेहास्पद बताते हुए सवाल उठाये. तब अचानक से इस मामले की जांच गृह मंत्रालय ने पुणे पुलिस से लेकर एनआईए को सौंप दी.
गड़बड़ी नंबर- 14
बड़े-बड़े अपराधियों को उनके रिश्तेदारों की शादियों में शरीक होने के लिए ज़मानत देने का प्रावधान है. इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों को उनके घरवालों के अंतिम संस्कार तक में नहीं जाने दिया गया. गडलिंग की मां की मृत्यु होने पर जब उन्होंने अंतिम संस्कार में जाने के लिए आवेदन दिया तो उनका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उसमें उनकी मां का मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं लगा है और बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के यह कैसे माना जाए कि उनकी मां की मृत्यु हो गयी है.
जब उन्होंने मृत्यु प्रमाण पत्र लगाया तो यह कह दिया गया कि अब तो उनकी मां का अंतिम संस्कार हो चुका है, अब जाकर क्या करेंगे. इसके बाद जब उन्होंने अपनी मां के लिए रखी गयी शोकसभा में जाने के लिए आवेदन किया तो उनका आवदेन ये कहकर खारिज कर दिया गया कि आवेदन के साथ शोकसभा की प्रति नहीं लगाई गयी है. इसी तरह सुधीर ढवले के बड़े भाई के अंतिम संस्कार और शोकसभा में उन्होंने जाने नहीं दिया गया.
गड़बड़ी नंबर- 15
एनआईए ने 4 सितम्बर, 2020 को कबीरकला मंच के रमेश गायचोर और सागर गोरखे को विटनेस समन (गवाह सामन) भेजकर पूछताछ के लिए बुलाया था. उन पर यह बयान देने का दबाव बनाया गया कि कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार लोग नक्सली हैं. अगले दिन उन्होंने झूठा बयान देने से मना कर दिया. इसके बाद सात सितम्बर को उन्हें फिर विटनेस समन देकर बुलाया गया और गिरफ्तार कर लिया गया.
गौरतलब है कि जब गायचोर और गोरखे ने दबाव देकर बयान देने की बात अदालत (मुंबई सेशन कोर्ट) में कही तो अदालत ने एनआईए के इस रवैये को गलत बर्ताव की श्रेणी के लायक नहीं माना. अदालत ने कहा कि गायचोर और गोरखे ने पुलिस द्वारा बुरे बर्ताव की कोई शिकायत नहीं की है. हालांकि उसने यह माना कि उनपर बयान देने का दबाव बनाया गया था.
गड़बड़ी नंबर- 16
यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन और डेमेंशिया (भूलने की बीमारी) जैसी बीमारियों से जूझ रहे वरवर राव को ढंग का इलाज दिलवाने के लिए उनके परिवार और वकीलों को जद्दोजहद करनी पड़ी.
81 साल के वरवर राव की तबियत मई महीने से बिगड़नी शुरू हो गयी थी. पुलिस ने उन्हें जेजे अस्पताल में भर्ती कराया और आनन-फानन में उनकी जांचें पूरी हुए बिना दोबारा जेल भेज दिया था. उनके परिवार को उनकी मेडिकल रिपोर्ट भी नहीं दी गयी थी. जुलाई में उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गयी थी तो उन्हें फिर अस्पताल भेजा गया. जब उनके परिवार वाले उनसे अस्पताल में मिले तो वह पेशाब में सने बिस्तर के एक कोने पर बैठे थे. उनका पाजामा भी पेशाब में सना हुआ था. बाद में वो कोविड पॉज़िटिव पाए गए तब उन्हें सेंट जॉर्ज अस्पताल भेजा गया. उनकी ख़राब सेहत के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवधिकार के हस्तक्षेप पर उन्हें नानावटी अस्पताल भर्ती कराया गया था. लेकिन अगस्त के महीने में बिना अदालत और उनके परिवार को जानकारी दिए, उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया था. लगभग दो महीने तक अदालतों के चक्कर काटने के बाद उन्हें एक बार फिर नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया है.
महाराष्ट्र की जेलों में जहां हज़ारों करोड़ों का घोटाला करने वाले नेताओं या जेल में कैद अंडरवर्ल्ड माफियाओं को टीवी, एसी, फ्रिज, मोबाइल फ़ोन, घर का खाना जैसी सुविधायें मुहैया करवा दी जाती हैं वहीं 83 साल के विचाराधीन कैदी स्टैन स्वामी को पानी पीने के लिए एक अदद स्ट्रॉ / सिपर की मांग खारिज कर दी जाती है. 70 साल के गौतम नवलखा को नज़र का चश्मा मुहैया कराने की गुज़ारिश पुलिस सिरे से खारिज कर देती है. लेकिन इन दोनों के साथ पुलिस और न्याय तंत्र द्वारा किए गए व्यवहार पर आपको ज्यादा हैरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये दोनों एक ऐसे मामले में जेल में कैद हैं जिसमें शुरुआत से लेकर अब तक इसी तरह क़दम-क़दम पर मानवधिकारों का उल्लंघन, नियमों की अनदेखी और कानूनों का बेजा इस्तेमाल देखने को मिला है.
हम बात कर रहे हैं कोरेगांव भीमा मामले की. इस घटना को हुए आज लगभग तीन साल हो गए. घटना के कुछ ही महीनों बाद पुलिस ने इसके तार अतिवादी नक्सलवाद से जोड़ दिये थे. अब तक इस मामले में 16 मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकीलों और बुद्धिजीवियों को अतिवादी वामपंथी विचारधारा का समर्थक बता कर गिरफ्तार कर चुकी है. लेकिन शुरुआती दौर से ही इस मामले में कानूनी और मानवाधिकार उल्लंघन की स्थिति देखने को मिली है. तीन साल बाद हमने एख बार फिर से उन तमाम गड़बड़ियों का एक जायजा लिया है.
गड़बड़ी नंबर- 1
इस मामले में सबसे पहला कानूनी उल्लंघन यह हैं कि कोर्ट द्वारा सर्च वारंट (तलाशी वारंट) जारी नहीं करने के बावजूद भी पुणे पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार लोगों के यहां दबिश दी. गौरतलब है कि 9 मार्च 2018 को इस मामले के जांच अधिकारी शिवाजी पवार ने पुणे के जेएमएफसी (जुडिशल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास), कोर्ट नंबर-4 में तलाशी वारंट की याचिका दायर की थी. पवार ने अपनी याचिका में लिखा था कि इस मामले से जुड़े आरोपियों के खिलाफ उनके पास कोरेगांव-भीमा में हुए दंगों से सम्बंधित होने के दस्तावेज हैं. इसलिए उन्हें आरोपियों के पास मौजूद उपकरणों को ज़ब्त करना है. उन्होंने यह भी लिखा था कि आरोपी सीआरपीसी की धारा 91 के तहत नोटिस जारी करने पर भी पुलिस के साथ जांच में सहयोग नहीं करेंगे. गौरतलब है कि पवार ने अपनी याचिका में यह दलील आरोपियों को धारा 91 के तहत नोटिस भेजे बिना ही लिख दी थी.
पवार की इस याचिका को अदालत ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि पवार ने आरोपियों को बिना नोटिस भेजे ही पूर्वानुमान लगा लिया कि वो जांच में सहयोग नहीं करेंगे. इस याचिका के लगभग एक हफ्ते पहले भी पवार ने इसी तरह की एक याचिका दायर की थी जिसे अदालत ने खारिज कर दिया था.
यानी दो बार तलाशी वारंट खारिज होने के बावजूद पुणे पुलिस ने 17 अप्रैल, 2018 को सुरेंद्र गडलिंग, रोना विल्सन, सुधीर ढवले और कबीर कला मंच के कुछ सदस्यों के यहां छापा मारकर उनके इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों (कंप्यूटर, हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, शादी, जन्मदिन, फोटो की निजी सीडी/ डीवीडी आदि) को ज़ब्त कर लिया था. सुरेंद्र गडलिंग की भांजी का लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिया था जिसमें उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई का प्रोजेक्ट था.
इसी तरह 28 अगस्त, 2018 को वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, वर्नन गोंज़ाल्विज़ और गौतम नवलखा के घर भी बिना वारंट के दबिश दी गई थी.
गड़बड़ी नंबर- 2
इस मामले में 17 अप्रैल 2018 को ज़ब्ती की कार्रवाई को अंजाम देने के लिए पुलिस गवाहों को पुणे से ही साथ लेकर गई थी. कानूनन यह गलत है. कानून के मुताबिक जिस घर में दबिश और ज़ब्ती हुई है वहां पंचनामें के लिए पंच उसी इलाके के दो गणमान्य नागरिक होने चाहिए. कायदे से पुणे पुलिस ने जब रोना विल्सन के यहां दिल्ली में दबिश देकर ज़ब्ती की थी तो उन्हें मुनिरका इलाके के ही दो गणमान्य नागरिकों को गवाह बनाकर अपने साथ विल्सन के घर ले जाना चाहिए था.
कानूनन दबिश के दौरान जब्त उपकरणों की एक फेहरिस्त स्थानीय अदालत में जमा करनी पड़ती हैं. पुणे पुलिस ने विल्सन, गडलिंग, ढवले के घरों से ज़ब्त किये गए उपकरणों की कोई जानकारी उनके शहरों की स्थानीय अदालत में जमा नहीं की. सुधीर ढवले के मुंबई स्थित दफ्तर पर पुलिस ने दबिश के दौरान ढवले का लैपटॉप तो ज़ब्त किया ही, साथ में वहां मौजूद अन्य लोगों के लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिया. असल में ढवले का दफ्तर मुंबई के बाहर से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के रुकने का एक ठिकाना है. वहां लोग अक्सर आते जाते रहते हैं. उस दिन छापे के दौरान वहां मौजूद अन्य लोगों के लैपटॉप भी ज़ब्त कर लिए गए थे.
कहने को तो पुणे पुलिस अपने साथ एक साइबर एक्सपर्ट और एक वीडियोग्राफर लेकर गयी थी लेकिन विल्सन, गडलिंग, ढवले के कंप्यूटर, हार्ड डिस्क जैसे उपकरणों को ज़ब्त करने के बाद पुणे पुलिस ने किसी को भी उन उपकरणों की हैश वैल्यू नहीं बताई. कानूनन पुणे पुलिस को अपने साइबर एक्सपर्ट के ज़रिये उन उपकरणों की मौके पर हैश वैल्यू निकलवा कर देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. वह भी उन उपकरणों की जिनके बारे में पुणे पुलिस दावा करती है कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश के पत्र मिले हैं.
इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 के अंतर्गत ज़ब्त किये गए इलेक्ट्रॉनिक सबूतों की विश्वसनीयता को बनाये रखने के लिए ज़ब्ती के दौरान लैपटॉप, हार्ड डिस्क व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की हैश वैल्यू या प्रिंट आउट निकाल कर दिया जाता है और उसके बाद ही यह उपकरण फॉरेंसिक लैब में भेजे जाते हैं. जैसे हर इंसान की उंगलियों के निशान अलग होते हैं उसी तरह हर उपकरण की हैश वैल्यू अलग होती है. हैश वैल्यू यह समझने में मदद करती है कि उपकरण में बाद में अलग से कोई दस्तावेज़ तो नहीं प्लांट कर दिए गए. क्योंकि अगर छेड़छाड़ होती है तो हैश वैल्यू बदल जाती है.
उपकरणों की ज़ब्ती करने के बाद 18 अप्रैल को ये उपकरण पुणे लाए गए. उसके बाद यह उपकरण जांच के लिए पुणे स्थित रीजनल फॉरेंसिक लैब भेजे गए जहां 25 अप्रैल को दस्तावेज़ों की क्लोन कॉपी पुलिस को प्राप्त हुयी. पुलिस का दावा है कि रोना विल्सन के कंप्यूटर से उनके हाथ प्रधानमंत्री को मारने की साजिश से जुड़ा पत्र मिला था.
हैरत की बात यह है कि पुलिस को 25 अप्रैल, 2018 को देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश के बारे में पता चल गया था तो उन्होंने रोना विल्सन और अन्य लोगों की गिरफ्तारी उसके 41 दिन बाद 6 जून को क्यों की. पुणे पुलिस की कार्रवाई उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है. 41 दिनों के दौरान गिरफ्तारी तो दूर की बात पुलिस ने सवाल जवाब करने के लिए भी विल्सन, गडलिंग और ढवले को नहीं बुलाया था.
गड़बड़ी नंबर- 3
रोना विल्सन के घर 17 अप्रैल को की गयी ज़ब्ती के पंचनामे के अनुसार कार्रवाई सुबह 6:05 बजे शुरू हुयी और दोपहर दो बज कर दो मिनट पर पंचनामा पूरा कर सभी उपकरण सील कर दिए गए थे. पुणे पुलिस ने जिस कैमरे से पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी की थी उसके मेमोरी कार्ड को भी एक एंटी स्टैटिक बैग में बंद कर सील कर दिया था. लेकिन फॉरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार पुलिस द्वारा लाये गए मेमोरी कार्ड को आखिरी बार शाम पांच बजकर बाइस मिनट पर इस्तेमाल किया गया था. यह इशारा करता है कि पंचनामें की प्रक्रिया और सील करने के बाद भी मेमोरी कार्ड का इस्तेमाल किया गया था. इसी तरह फॉरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार रोना विल्सन के कंप्यूटर को भी उस दिन 11:16 से लेकर 11:20 बजे के दौरान चार मिनट के लिए खोला गया था.
गड़बड़ी नंबर- 4
कानूनन अगर पुलिस किसी व्यक्ति को दूसरे शहर जाकर गिरफ्तार करती है तो गिरफ्तारी के बाद उस शहर की स्थानीय अदालत में हाज़िर करना होता है और ट्रांजिट रिमांड लेकर ही वहां से जाना होता है. बिना ट्रांज़िट रिमांड के पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति को एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जा सकती. 6 जून, 2018 को जब पुलिस ने सुरेंद्र गडलिंग को नागपुर से गिरफ्तार किया लेकिन उन्हें नागपुर की अदालत में पेश नहीं किया. पुणे पुलिस गडलिंग को अमरावती ले गयी और वहां की एक अदालत में उन्हें पेश किया. जब अदालत ने पुलिस की इस हरकत पर आपत्ति जताई और उन्हें ट्रांजिट रिमांड देने से मना कर दिया तो पुलिस गडलिंग को नागपुर हवाई अड्डे लेकर आयी और उन्हें बिना ट्रांज़िट रिमांड के पुणे ले गई. गडलिंग के अलावा पुलिस शोमा सेन को भी बिना ट्रांज़िट रिमांड के अपने साथ लेकर आयी थी.
इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों के परिवारों को पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी का मेमो भी नहीं दिया था. 7 जून, 2018 को जब पुलिस ने सभी लोगों को पुणे की अदालत के सामने पेश किया तो उनके पास वकील भी नहीं था. पुलिस ने खुद ही अपनी तरफ से आरोपियों के लिए एक वकील को चुन लिया था. गडलिंग, जो कि पेशे से खुद भी एक वकील हैं, ने पुलिस द्वारा चयनित वकील को उनके मामले की पैरवी करने का विरोध किया था. लेकिन पुलिस द्वारा चयनित वकील का वकालतनामा पहले से ही दायर किया जा चुका था जिसके चलते इस मामले में कुछ ना हो सका.
इसके मद्देनज़र नागपुर बार एसोसिएशन ने एक प्रस्ताव पारित कर पुणे की अदालत से अपील की थी गडलिंग के कनिष्ट व अन्य वकीलों को उनसे मिलने की इज़ाज़त दी जाए जिसे अदालत ने मान लिया था. बाद में गडलिंग और उनके करीबियों ने पुलिस द्वारा चयनित वकील को ढूढ़ने की बहुत कोशिश की लेकिन उनका पता नहीं चला. स्टैन स्वामी, सुधा भारद्वाज, शोमा सेन को भी पुलिस बिना स्थानीय अदालतों में पेश किए, बिना ट्रांज़िट रिमांड के ले आयी थी.
गड़बड़ी नंबर- 5
क़ानूनन अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो उसे पुलिस गिरफ्तारी के कारण के दस्तावेज़ मुहैया कराती है और यह दस्तावेज़ उस भाषा में होते हैं जिसे व्यक्ति समझ सके. लेकिन कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार हुए वरवर राव, सुधा भारद्धाज, रोना विल्सन, गौतम नवलखा आदि को यह दस्तावेज़ मराठी में दिए गए थे जबकि इन्हें मराठी समझ में नहीं आती है.
गड़बड़ी नंबर- 6
सुरेंद्र गडलिंग को पुलिस हिरासत में दिल की बीमारी हो गयी थी, जिसके चलते उन्हें पुणे के नायर अस्पताल में 3-4 दिन के लिए भर्ती किया गया था. लेकिन उनकी पत्नी को पुलिस ने ना उनसे मिलने की इज़ाज़त दी, ना बात करने की. वह दिन भर उनके कमरे के बाहर बैठी रहती थीं. उन्हें सिर्फ दूर से अपने पति को देखने की इज़ाज़त थी.
उनके अस्पताल और दवाइयों का खर्च भी उनकी पत्नी ने उठाया था, बावजूद इसके कि गडलिंग के इलाज की ज़िम्मेदारी पुलिस और प्रशासन की थी. पुलिस ने गडलिंग की सेहत की जानकारी से सम्बंधित मेडिकल रिकार्ड्स भी उनकी पत्नी को देने से मना कर दिया था. जब उन्होंने सूचना के अधिकार के ज़रिये उनकी मेडिकल रिपोर्ट हासिल करनी चाही तो अस्पताल ने जवाब में यह लिखकर मना कर दिया कि वह किसी अन्य व्यक्ति के मेडिकल रिकार्ड्स की जानकारी उन्हें नहीं दे सकते.
इसी तरह महेश राउत, जो बहुत समय से पेट की बीमारी ग्रसित थे, कि डॉक्टर की सलाह पर बायोप्सी की गयी थी. लेकिन पुलिस ने उन्हें उनकी बायोप्सी रिपोर्ट देने से मना कर दिया और बस कहा कि वह ठीक हैं. कई बार उनके वकीलों ने अदालत से उन्हें मेडिकल रिपोर्ट मुहैया कराने की अपील की लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
गड़बड़ी नंबर- 7
शोमा सेन गठिया (आर्थराइटिस) की बीमारी से ग्रसित हैं. जेल में मौजूद भारतीय पद्धति के शौचालय में जाना उनके लिए बेहद तकलीफदेह था, जिसके चलते उन्होंने सर्जिकल कमोड मुहैया कराने की अदालत से अपील की थी, अदालत ने अपने आदेश में कहा था कि जेल के नियम अगर इस बात की इज़ाज़त देते हैं तो उन्हें सर्जिकल कमोड मुहैया कराया जाए. इसके बाद शोमा सेन की बेटी दो बार जेल में सर्जिकल कमोड लेकर गयी थीं लेकिन उन्हें लौटा दिया गया. तीसरी बार जब उनकी बेटी फिर से गईं तब जाकर जेल प्रशासन ने उनसे वह कमोड लिया. लगभग एक महीने बाद उनको वह कमोड मुहैया हुआ.
इसी तरह अदालत के निर्देश के बाद भी जेल प्रशासन ने यह कह कर स्वेटर गडलिंग को देने से मना कर दिया कि जेल में ऊनी स्वेटर मुहैया नहीं कराये जा सकते और जेल में सिर्फ थर्मल स्वेटर ही दिए जा सकते हैं. इसके बाद जब उनकी पत्नी थर्मल स्वेटर लेकर गयीं तो उन्होंने यह कहकर वापस कर दिया कि जेल में पूरी बांह का स्वेटर नहीं दिया जा सकता और वो जाकर आधी बांह का स्वेटर लेकर आएं.
गड़बड़ी नंबर- 8
इस मामले में स्वामी विवेकानन्द तक की किताबों को अभियोजन ने जेल में मौजूद आरोपियों को यह दलील देकर देने से मना कर दिया था कि वो किताबें प्रतिबंधित हो सकती हैं.
गड़बड़ी नंबर- 9
कानूनन जिस मामले में यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज़ एंड प्रिवेंशन एक्ट) की धारा लग जाती है उस मामले कि सुनवाई विशेष अदालत में, विशेष प्रकिया के मद्देनज़र की जाती है. अगर विशेष अदालत ना हो तब मामले की सुनवाई सामान्य अदालत में सामान्य कार्यप्रणाली से की जाती है. लेकिन कोरेगांव-भीमा के मामले में पुणे में एनआईए की विशेष अदालत होने के बावजूद भी यह मुकदमा सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) में चलाया गया और वही आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल किया गया.
गौरतलब है कि सीधे-सीधे सेशन कोर्ट में आरोपपत्र को दाखिल करने को लेकर कानून में मनाही है, इसके बावजूद भी इस मामले में आरोपपत्र को सीधे सेशन कोर्ट में दाखिल कर दिया गया. अगर कानूनी प्रक्रिया से देखा जाए तो आरोपपत्र अधूरा है, क्योंकि दो साल बाद भी अभी तक आरोपियों को हार्डडिस्क व अन्य ज़ब्त किये गए उपकारणों की मिरर इमेज नहीं दी गयी है.
गड़बड़ी नंबर- 10
इस मामले में आरोपपत्र दायर करने की अवधि को बढ़ाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पुणे की अदालत को फटकार लगायी थी. जब इस मामले में 90 दिन तक आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ था तो अवधि को 90 दिन और बढ़ाने के लिए अभियोजन पक्ष के वकील ने आवेदन किया था. आवेदन शुक्रवार को दाखिल किया गया था और आरोपियों को जेल में उसी दिन बताया गया कि अगले दिन शनिवार को उन्हें अदालत में अवधि बढ़ाने की सुनवाई के लिए पेश होना है. स्वाभाविक है कि जेल से अरोपी अपने वकीलो तक इस बाद की सूचना नहीं पहुंचा सकते थे और पुलिस की तरफ से भी आरोपियों के वकीलों को सूचित नहीं किया गया था. शनिवार को जब गिरफ्तार लोगों को अदालत में पेश किया गया तो उन्होंने अभियोजन कि इस जल्दबाज़ी का विरोध जताते हुए 2-3 दिन की मोहलत मांगी थी ताकि वे अपने वकीलों को इत्तेला कर सकें, लेकिन उसके बावजूद विशेष सुनवाई अगले दिन रविवार को ही कर दी गयी.
गड़बड़ी नंबर- 11
14 अप्रैल, 2019 को इस मामले में गौतम नवलखा ने एनआईए (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) के सामने आत्मसमर्पण किया था. उन्हें उस वक़्त तिहाड़ जेल में रखा गया था और उसी दौरान उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी. जिस दिन उनकी जमानत की सुनवाई होने वाली थी उसके एक दिन पहले बिना अदालत की इजाजत लिए उन्हें तिहाड़ जेल से निकालकर मुंबई ले जाया गया. पुलिस की इस हरकत पर हाईकोर्ट ने फटकार लगाते हुए उनसे जवाब भी तलब किया था.
गड़बड़ी नंबर- 12
पुणे पुलिस ने आनंद तेलतुंबड़े को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए चार हफ़्तों के सरंक्षण के बावजूद भी गिरफ्तार कर लिया था. हालांकि बाद में पुणे सेशन कोर्ट ने उनकी रिहाई को गैरकानूनी करार देते हुए उनकी तुरंत रिहाई के आदेश दिए थे.
गड़बड़ी नंबर- 13
इस मामले को जिस तरह से एनआईए को सौपा गया है वह भी कई सवाल खड़े करता है. गौरतलब हैं कि यूएपीए का मामला दर्ज होने पर राज्य सरकार को पांच दिन के भीतर केंद्र सरकार को सूचित करना होता है. फिर केंद्र सरकार 15 दिन के भीतर उस पर निर्णय लेकर राज्य सरकार को बताती है कि जांच राज्य पुलिस करेगी या एनआईए. अगर सरकार 15 दिन में जवाब नहीं देती है तो मामला अपने आप राज्य सरकार के पास चला जाता है.
एक बार जांच राज्य पुलिस के पास जाने के बाद उसे दोबारा नहीं लिया जा सकता. असल में साल 2019 में एनआईए पुणे पुलिस द्वारा की जा रही जांच से संतुष्ट थी और जांच की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी. लेकिन नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र में नयी सरकार बन गई. उसने कोरेगांव-भीमा की जांच को संदेहास्पद बताते हुए सवाल उठाये. तब अचानक से इस मामले की जांच गृह मंत्रालय ने पुणे पुलिस से लेकर एनआईए को सौंप दी.
गड़बड़ी नंबर- 14
बड़े-बड़े अपराधियों को उनके रिश्तेदारों की शादियों में शरीक होने के लिए ज़मानत देने का प्रावधान है. इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों को उनके घरवालों के अंतिम संस्कार तक में नहीं जाने दिया गया. गडलिंग की मां की मृत्यु होने पर जब उन्होंने अंतिम संस्कार में जाने के लिए आवेदन दिया तो उनका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उसमें उनकी मां का मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं लगा है और बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के यह कैसे माना जाए कि उनकी मां की मृत्यु हो गयी है.
जब उन्होंने मृत्यु प्रमाण पत्र लगाया तो यह कह दिया गया कि अब तो उनकी मां का अंतिम संस्कार हो चुका है, अब जाकर क्या करेंगे. इसके बाद जब उन्होंने अपनी मां के लिए रखी गयी शोकसभा में जाने के लिए आवेदन किया तो उनका आवदेन ये कहकर खारिज कर दिया गया कि आवेदन के साथ शोकसभा की प्रति नहीं लगाई गयी है. इसी तरह सुधीर ढवले के बड़े भाई के अंतिम संस्कार और शोकसभा में उन्होंने जाने नहीं दिया गया.
गड़बड़ी नंबर- 15
एनआईए ने 4 सितम्बर, 2020 को कबीरकला मंच के रमेश गायचोर और सागर गोरखे को विटनेस समन (गवाह सामन) भेजकर पूछताछ के लिए बुलाया था. उन पर यह बयान देने का दबाव बनाया गया कि कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार लोग नक्सली हैं. अगले दिन उन्होंने झूठा बयान देने से मना कर दिया. इसके बाद सात सितम्बर को उन्हें फिर विटनेस समन देकर बुलाया गया और गिरफ्तार कर लिया गया.
गौरतलब है कि जब गायचोर और गोरखे ने दबाव देकर बयान देने की बात अदालत (मुंबई सेशन कोर्ट) में कही तो अदालत ने एनआईए के इस रवैये को गलत बर्ताव की श्रेणी के लायक नहीं माना. अदालत ने कहा कि गायचोर और गोरखे ने पुलिस द्वारा बुरे बर्ताव की कोई शिकायत नहीं की है. हालांकि उसने यह माना कि उनपर बयान देने का दबाव बनाया गया था.
गड़बड़ी नंबर- 16
यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन और डेमेंशिया (भूलने की बीमारी) जैसी बीमारियों से जूझ रहे वरवर राव को ढंग का इलाज दिलवाने के लिए उनके परिवार और वकीलों को जद्दोजहद करनी पड़ी.
81 साल के वरवर राव की तबियत मई महीने से बिगड़नी शुरू हो गयी थी. पुलिस ने उन्हें जेजे अस्पताल में भर्ती कराया और आनन-फानन में उनकी जांचें पूरी हुए बिना दोबारा जेल भेज दिया था. उनके परिवार को उनकी मेडिकल रिपोर्ट भी नहीं दी गयी थी. जुलाई में उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गयी थी तो उन्हें फिर अस्पताल भेजा गया. जब उनके परिवार वाले उनसे अस्पताल में मिले तो वह पेशाब में सने बिस्तर के एक कोने पर बैठे थे. उनका पाजामा भी पेशाब में सना हुआ था. बाद में वो कोविड पॉज़िटिव पाए गए तब उन्हें सेंट जॉर्ज अस्पताल भेजा गया. उनकी ख़राब सेहत के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवधिकार के हस्तक्षेप पर उन्हें नानावटी अस्पताल भर्ती कराया गया था. लेकिन अगस्त के महीने में बिना अदालत और उनके परिवार को जानकारी दिए, उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया था. लगभग दो महीने तक अदालतों के चक्कर काटने के बाद उन्हें एक बार फिर नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया है.
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