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आपके मीडिया का मालिक कौन: पंजाब केसरी का क्रांतिकारी इतिहास और उत्तराधिकारियों के बंटवारे की कहानी
हिंद समाचार ग्रुप का मालिकाना हक़ चोपड़ा परिवार के पास है. इसके लोकप्रिय अख़बार पंजाब केसरी के कारण इसे पंजाब केसरी समूह के नाम से भी जाना जाता है.
भारत के अन्य लिगेसी मीडिया यानि विरासत में मिले समाचार प्रकाशनों की तरह इस समूह के आगाज़ की कहानी भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी है. जब महात्मा गांधी ने 1920 के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए युवाओं का आह्वान किया, तब समूह के संस्थापक जगत नारायण सिर्फ 21 वर्ष के थे और विधि (लॉ) के छात्र थे. पढ़ाई छोड़कर वह लाहौर कांग्रेस में शामिल हो गए और जल्द ही पार्टी में ऊंचे पदों पर पहुंच गए.
हालांकि, उन्हें भी यह देशप्रेम विरासत में ही मिला था.
परिवार की सदस्य सीमा आनंद चोपड़ा अपने ब्लॉग timelesstrails.in में नारायण के पिता लाला लक्ष्मी दास चोपड़ा के बारे में बताती हैं, "वह लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के कलेक्टर थे. उनका सामना एक ब्रिटिश इंस्पेक्टर से हुआ, जिसने उन्हें घोड़े से उतरकर उसे सम्मान देने का आदेश दिया. उन्होंने ब्रिटिश अधिकारी का यह अपमानजनक आदेश मानने से इनकार कर दिया और उसी क्षण नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया. उन्होंने कसम खाई कि उनकी आने वाली पीढ़ियां कभी भी साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार की नौकरी नहीं करेंगी और उन्होंने लायलपुर के एक नामी वकील के यहां मुंशी की नौकरी कर ली."
वह बताती हैं, "आखिरकार, वह वज़ीराबाद (अब पाकिस्तान में) के दीवानों के वंशज थे और उनके पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह के दरबार का हिस्सा थे."
लाहौर जेल में नारायण की मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई; दोनों असहयोग आंदोलन के दौरान जेल में थे. इस दौरान नारायण ने पहले उनके निजी सचिव के रूप में काम किया और फिर उनकी सलाह पर भाई परमानंद के हिंदी साप्ताहिक आकाशवाणी के संपादक भी बने. इस तरह उन्होंने समाचारपत्रों की दुनिया में कदम रखा. सीमा के ब्लॉग के अनुसार, वे (1930 के दशक के) सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) समेत अलग-अलग अवसरों पर कुल मिलाकर नौ साल जेल में रहे.
सेवंती निनन ने अपनी पुस्तक हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड में लिखा है कि कन्या महाविद्यालय की हिंदी प्रकाशन पांचाल पंडिता का उस समय पंजाब में काफी प्रभाव था. इसकी स्थापना 1901 में जालंधर में हुई थी और इसने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अभियान चलाया था.
“1929 में लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित लोक सेवक मंडल ने पंजाब केसरी नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया. पुरुषोत्तम दास टंडन इसके प्रकाशक और भीम सेन विद्यालंकार संपादक थे. लाला लाजपत राय की आत्मकथा सबसे पहले यहीं छपी थी और पंडित नेहरू ने इसमें हिंदी में लेख लिखे थे. लाहौर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान यह दैनिक रूप से प्रकाशित होने लगा. अखबार में कांग्रेस के अंदर की खबरें छपा करती थीं. बाद में यह बंद हो गया. 1960 के दशक में एक प्रकाशन समूह ने इसी नाम से फिर एक अखबार शुरू किया (वैदिक 2002).”
लेकिन इस नई शुरुआत से बहुत पहले देश का विभाजन हो गया, जिसके बाद जगत नारायण भारत आ गए. ब्लॉग में बताया गया है कि उन्होंने अपने बेटों रोमेश चंद्र चोपड़ा और विजय चोपड़ा के साथ 1949 में एक उर्दू दैनिक हिंद समाचार का प्रकाशन शुरू किया. प्रेस इन इंडिया: एनुअल रिपोर्ट ऑफ रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया (1958) किताब के अनुसार, इसका पंजीकरण 1948 में किया गया. "रोमेश चंदर" इसके मुद्रक और प्रकाशक थे, और नौहरिया राम दर्द संपादक.
उस समय, सभी राज्यों में सबसे अधिक (144) उर्दू प्रकाशन पंजाब में निकलते थे. पंजाबी के अखबार 102 थे जबकि हिंदी के केवल 62. उर्दू की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लाला लाजपत राय की स्मृति में पंजाब केसरी नाम का हिंदी अखबार 17 साल बाद छपना शुरू हुआ. जैसा कि निनान ने अपनी किताब में लिखा है, "जब समझा जाने लगा कि पंजाब में हिंदी पढ़ने वालों की तादाद इतनी है कि यह प्रयास सार्थक हो सके".
1967 की प्रेस इन इंडिया पुस्तक के अनुसार, "1966 में सबसे अधिक बिकने वाला अखबार जालंधर शहर से छपनेवाला (उर्दू दैनिक) हिंद समाचार था. गौरतलब है कि राज्य में सबसे अधिक बिकने वाले सारे अखबार जालंधर से छपते थे."
1978 में समूह ने एक पंजाबी समाचार पत्र, जगबाणी भी प्रकाशित करना शुरू किया.
प्रेस इन इंडिया के अनुसार, 1986 तक पंजाब केसरी का प्रकाशन जालंधर के अलावा अंबाला और दिल्ली से भी होने लगा था. इसकी हर दिन 4,60,000 प्रतियां बिकती थीं और यह भारत में सबसे अधिक बिकनेवाला हिंदी अखबार था. 1990 के दशक के अंत तक यह उत्तर भारत में सबसे अधिक बिकने वाला हिंदी दैनिक बना रहा. हालांकि, किताब के अनुसार, 2005 आते-आते यह दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान और अमर उजाला से पिछड़ रहा था, जो कहीं अधिक आक्रामक रूप से आगे बढ़ रहे थे.
रॉबिन जेफ़री ने अपनी किताब इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवोल्यूशन: कैपिटलिज़्म, पॉलिटिक्स एंड द इंडियन-लैंग्वेज प्रेस, 1977-99 में लिखा है कि पुराने अभिजात वर्ग के लोग अपने अखबारों में "साहित्यिक भाषा और शास्त्रीय शैली में लिखते थे. जिसे वे 'उत्कृष्ट गद्य' मानते थे". लेकिन पंजाब केसरी जैसे अखबारों ने अपने लेखन में बोलचाल की भाषा का प्रयोग करके उनके भाषाई आधिपत्य का अंत कर दिया, जो उनकी “असुविधा और निराशा” का कारण बना.
जेफरी की किताब में उस समय के मीडिया के कामकाज की भी झलक मिलती है. मसलन, तब मीडिया की आय, पहुंच और अस्तित्व पर किन चीजों का प्रभाव था, और कौन से तरीके और उपकरण प्रयोग किए जाते थे.
"पंजाब केसरी... एक अनोखा अखबार था. जिसका 'गंभीर' संपादक कभी-कभी मजाक उड़ाते थे. इसके पहले और आखिर के पन्नों पर हर दिन ख़बर की जगह भड़कीले रंगों वाली पत्रिका छपती थी."
उदाहरण के लिए, ऐसा लगता है कि विज्ञापन के लिए भारतीय भाषा के अख़बारों ने "ईनाडु, आनंद बाज़ार पत्रिका और सकाल में प्रयोग की जा रही तकनीकें अपनाईं", लेकिन साथ ही उनमें स्थानीय विशेषताएं भी लेकर आए. सबसे अलग हटकर पंजाब केसरी ने लॉटरी के नतीजों और वर्गीकृत विज्ञापनों को आय का स्रोत बनाया. अधिकांश प्रकाशन इसे पसंद नहीं करते थे, लेकिन 1993 में रोमेश चंद्र के बड़े बेटे और पंजाब केसरी दिल्ली के तत्कालीन संपादक अश्विनी कुमार चोपड़ा ने एक साक्षात्कार के दौरान जेफरी को बताया कि अब उन्हें विज्ञापनदाताओं को मनाना नहीं पड़ता, वह खुद उनके पास आते हैं.
यह बड़ी बात थी क्योंकि, जैसा कि किताब में कहा गया है, "आपसी प्रतिस्पर्धा में, विशेष रूप से अंग्रेजी प्रेस के साथ, हिंदी अखबारों के लिए कोई भी विज्ञापन अच्छा विज्ञापन था".
विज्ञापन बढ़ने के साथ ही यह अखबार नेताओं की नज़र में आ गए. जेफरी की किताब में कहा गया है कि "नेताओं और नौकरशाहों ने भारतीय भाषा के अखबारों को गंभीरता से लेना तभी शुरू किया जब उन अखबारों को विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा मिलना शुरू हुआ और उनका विस्तार हुआ. 'अगर विज्ञापनदाता, जो कि पाठकों का सर्वे करते हैं और बाजार विशेषज्ञों को नियुक्त करते हैं, वह इन अखबारों को महत्वपूर्ण मानते हैं, तो राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स को भी लगा कि ‘कुछ तो’ होगा. इसीलिए हमें इन संपादकों और पत्रकारों पर अधिक ध्यान देना चाहिए'."
किताब का एक हिस्सा बताता है कि कैसे भारतीय अखबारों ने स्थानीयता की आवश्यकता को समझा और पाठकों को आकर्षित करने के तरीके खोजे. इसी हिस्से में एक दिलचस्प कहानी यह भी है कि पंजाब केसरी ने आपातकाल का सामना कैसे किया.
"पंजाब केसरी...एक अनोखा अखबार था. जिसका 'गंभीर' संपादक कभी-कभी मजाक उड़ाते थे, [क्योंकि] इसके पहले और आखिरी के पन्नों पर हर दिन ख़बर की जगह भड़कीले रंगों वाली पत्रिका छपती थी. खबरें तीसरे पन्ने से शुरू होती थीं. उदाहरण के लिए, 2 मई, 1993 को श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या जैसी बड़ी ख़बर भी अगले दिन पंजाब केसरी के तीसरे पन्ने पर थी. अख़बार का प्रारूप रोज़ की तरह रहा. पहले पन्ने पर पत्रिका छपी: नौ रंगीन तस्वीरें, सिनेमा की गपशप, एक पैराग्लाइडिंग फीचर और संपादक विजय चोपड़ा का यात्रा और विचार पर एक कॉलम."
अश्विनी ने बताया था कि पत्रिका छापने का यह फार्मूला आपातकाल के दौरान विकसित हुआ. उन्होंने कहा कि लाला जगत नारायण ने सेंसरशिप का विरोध किया था, इसलिए सरकार उन पर बहुत सख्त थी और उन्हें ख़बर प्रकाशित करने की अनुमति नहीं थी. लेकिन उन्होंने अनुरोध किया कि उन्हें कम से कम कुछ ख़बरें प्रकाशित करने की अनुमति दी जाए और वह पत्रिका को पहले पन्ने पर ले आए.
आपातकाल हटने तक आश्चर्यजनक रूप से उनकी बिक्री दोगुनी हो गई. कुमार ने माना कि इसके और कारण भी थे. "चूंकि मेरे दादाजी गिरफ्तार हो गए थे और फिर हमारी बिजली काट दी गई थी, लोगों को पता था कि यह अखबार लड़ रहा है, और जब हमने पहले पन्ने पर पत्रिका छापी तो यह हमारे पाठकों के लिए एक संदेश था: "देखो, वे हमें समाचार छापने की अनुमति नहीं दे रहे हैं, इसलिए हम आपके लिए [एक] पत्रिका लेकर आए हैं'."
आपातकाल के बाद अखबार ने फिर से पहले पन्ने पर समाचार छापना शुरू कर दिया, लेकिन फिर सर्कुलेशन में गिरावट शुरू हो गई; पाठक नए प्रारूप के आदी हो चुके थे और वे नहीं चाहते थे कि अखबार की शैली पहले जैसी हो जाए. जेफरी ने ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के आंकड़ों के साथ मिलान करके इस बात की पुष्टि की और पाया कि अश्विनी कुमार की व्याख्या काफी हद तक सही है.
इमरजेंसी के दौरान ही नारायण और रोमेश कांग्रेस से अलग हो गए. दोनों ही पंजाब से पार्टी के सांसद रह चुके थे.
समूह ने अख़बार का वितरण करने के लिए सभी तरीके अपनाए. जेफरी की किताब में कहा गया है कि 1983 तक पंजाब केसरी केवल जालंधर से प्रकाशित होता था लेकिन सुबह शहरों में जो दूधवाले आते थे, वह अपने गांव वापस जाते समय अखबार ले जाते थे. यही काम डाकिया, छात्र और शिक्षक भी करते थे. "अख़बार विदेशों में भी जाता है," 1979 में एक विदेशी पर्यवेक्षक ने लिखा था. उन्होंने आगे कहा कि अख़बार को "साउथहॉल के एक उपनगर में बिक्री के लिए जहाज से लंदन भेजा जाता था."
समूह ने ख़बरें जुटाने के लिए भी परंपरागत तरीकों से हट कर काम किया. किताब के अनुसार, अखबार में कॉपी एडिटर और स्ट्रिंगर तो बड़ी संख्या में थे लेकिन स्टाफ रिपोर्टर केवल आधा दर्जन थे. इसलिए प्रकाशन ने ऐसी व्यवस्था बनाई जिसके तहत एक ही रिपोर्टर या स्ट्रिंगर तीनों दैनिक समाचार पत्रों के लिए एक इलाके या एक बीट को कवर करता था. आज के मीडिया घराने, जिन्हें प्रिंट और टीवी टीम से ऑनलाइन रिपोर्ट करवाना एक चुनौती लगती है, इस तरह के तारतम्य से जरूर ईर्ष्या करेंगें.
पंजाब केसरी भी समाचार एजेंसियों, सिंडिकेट फीड और अंग्रेजी भाषा के प्रकाशनों पर निर्भर था, लेकिन तस्वीरें और समाचार इकट्ठा करने के लिए वह फेरीवालों का भी इस्तेमाल करते थे. इसके लिए एक प्रतिद्वंद्वी संपादक ने उनका उपहास भी किया था.
राजनीति, आतंक और हत्या
1991 में इंग्लैंड के पत्रकार कुलबीर नट ने इंडेक्स ऑन सेंसरशिप पत्रिका में 'टेररिज़्म अगेंस्ट पंजाब मीडिया' शीर्षक से एक लेख लिखा. यह लेख उन घटनाओं पर था जो एक दशक पहले शुरू हुई थीं. नट ने लिखा: “पंजाब के दूसरे संपादकों की तरह ही नारायण राजनेता पहले थे, और पत्रकार बाद में.”
आगे की पंक्तियों में इसका अर्थ स्पष्ट होता है: “वह (नारायण) अपने अख़बारों में सिख चरमपंथी नेता संत जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके अनुयायियों की मांगों की आलोचना करते थे. तब सिख युवाओं के बीच भिंडरावाले का प्रभाव बढ़ रहा था. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार से पंजाब के लिए अधिक आर्थिक सहायता पाने के लिए हिंदुओं और सिखों को सांप्रदायिक आधार पर नहीं बल्कि साथ मिलकर काम करना चाहिए. उन्होंने भिंडरावाले समर्थकों द्वारा निरंकारियों की हत्या की निंदा की. मालूम हो कि निरंकारी,रूढ़िवादी सिख संप्रदाय नहीं है.”
1981 में नारायण की हत्या कर दी गई. बीस दिन बाद इंडिया टुडे में एक रिपोर्ट आई, जिसमें रोमेश ने बताया था कि उनके पिता ने अप्रैल 1978 में 200 चरमपंथी सिखों द्वारा एक निरंकारी सभा पर किए गए सशस्त्र हमले की जांच कर रहे एक विशेष आयोग के सामने गवाही दी थी, तभी से उनका नाम 'हेट लिस्ट' में था.
सिखों और निरंकारियों के बीच लंबे समय से कथित तौर पर मतभेद थे, क्योंकि निरंकारियों की धर्म की व्याख्या पारंपरिक सिख मान्यताओं से अलग थी. लेकिन दोनों के बीच कथित रूप से तनाव तब उत्पन्न हुआ जब 'संत निरंकारी' नामक उप-संप्रदाय उभरने और लोकप्रिय होने लगा. कई सिखों को उनकी (धार्मिक) व्याख्या झूठी और अपमानजनक लगी. 1978 की घटना सिखों के पवित्र पर्व बैसाखी के दिन हुई, जब निरंकारी मिशन के प्रमुख गुरबचन सिंह अमृतसर में एक सभा को संबोधित करने वाले थे. द प्रिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसका विरोध करने के लिए, (अमृतसर के पास स्थित 300 साल पुराने सिख शैक्षणिक संगठन) दमदमी टकसाल के 14वें प्रमुख भिंडरावाले ने एक जत्था (सिखों का सशस्त्र समूह) कार्यक्रम स्थल पर भेजा. हालांकि, निरंकारियों ने दावा किया था कि 'सशस्त्र कट्टरपंथियों' ने उनपर हमला किया लेकिन कई रिपोर्टों से पता चलता है कि निरंकारी खुद भी हथियारों से लैस थे और उन्होंने जत्थे पर हमला किया.
धीरे-धीरे, भिंडरावाले को आतंकवादी समझा जाने लगा, सरकार भी ऐसा मानने लगी. लेकिन कई लोग अब भी उनका आदर करते थे. इंडिया टुडे में मनजीत सहगल का लेख इसका कारण बताता है. 1977 में दमदमी टकसाल का प्रमुख बनने के बाद, उनका अमृत प्रचार बहुत सफल रहा; उन्होंने लोगों से शराब, तंबाकू और नशीली दवाओं से दूर रहने को कहा. साथ ही, "बढ़ती अश्लीलता पर लगाम लगाने के लिए, भिंडरावाले के अनुयायी सिनेमाघरों और गावों के वीडियो पार्लरों पर धावा बोलकर अश्लील फिल्में जब्त कर लेते थे". नतीजतन, हजारों सिख अपने धर्म की ओर वापस आए. न केवल वह बड़ी संख्या में गुरुद्वारों में लौटे, बल्कि अपने खेतों में भी अधिक समय बिताने लगे.
इन घटनाओं से यह समझा जा सकता है कि भिंडरावाले के प्रभाव ने शुरू से ही आक्रामकता को बढ़ावा दिया. हालांकि, कई लोगों का मानना है कि उसका कद बढ़ाने में कांग्रेस का हाथ है, जिसने कथित तौर पर राजनीतिक लाभ के लिए उसका इस्तेमाल किया. खुशवंत सिंह के शब्दों में, "ज्ञानी ज़ैल सिंह के रूप में उसके पास एक कुटिल संरक्षक था. जब उसपर जगत नारायण की हत्या में शामिल होने का आरोप लगा, तो ज़ैल सिंह ने ही उसे रिहा करवाया था." कारवां के एक लेख में हरतोष सिंह बल ने कमलनाथ के बयान और मार्क टली की रिपोर्टिंग के हवाले से बताया है कि यह आपसी सहयोग की एक ऐसी व्यवस्था थी जो तब तक चली जब तक कि उससे भिंडरावाले को फायदा हुआ.
उस समय को याद करते हुए खुशवंत सिंह आउटलुक में लिखते हैं कि भिंडरावाले हिंदुओं के खिलाफ "अपमानजनक" भाषा का प्रयोग करता था और "हिंदू-सिख समस्या को हल करने के लिए हर सिख को 32 हिंदुओं को मारने के लिए उकसाता था... जिस किसी ने भी उसका विरोध किया, उसे 'हिट लिस्ट' में डाला गया और उनमें से कुछ को मार दिया गया."
नारायण उसके एक मुखर विरोधी थे.
इंडिया टुडे की उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार, नारायण ने अपने अख़बारों में (निरंकारियों की) हत्या की निंदा करने के अलावा, उस साल की शुरुआत में जन्मे खालिस्तान आंदोलन को “राष्ट्र-विरोधी” बताया और “राज्य सरकार से 'गद्दारों' को गिरफ्तार करने का अनुरोध" किया. चंद्र ने बताया कि इससे आंदोलन के नेता इतने नाराज़ हो गए कि अमृतसर में सिख स्टूडेंट फेडरेशन ने नारायण को चेतावनी दी कि वह इसे वापस लें, जिसे उन्होंने नहीं माना”.
हत्या से कुछ समय पहले नारायण ने बताया था कि उन्हें लगभग 20 धमकी भरे खत मिल चुके थे, और एक बार हत्या की असफल कोशिश भी हो हुई.
रिपोर्ट में कहा गया है कि उनकी हत्या पर देश भर में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. जानी-मानी हस्तियों ने इसकी कड़ी निंदा की, जालंधर में सरकारी कार्यालय और बाज़ार बंद रहे, साथ ही पंजाब के कुछ अन्य शहरों में दुकानें भी बंद रहीं.
पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह और केंद्रीय गृह मंत्री ज़ैल सिंह उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जालंधर पहुंचे. उनके अंतिम संस्कार में लगभग 80,000 लोग शामिल हुए. नारायण पंजाब के विधायक (1952-1962), मंत्री, महासचिव और राज्य सभा के सदस्य (1964-1970) रह चुके थे.
2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया था.
नारायण के बाद रोमेश समूह के संपादक बने. कुलदीप नट के लेख के अनुसार, उन्होंने चरमपंथियों की डराने-धमकाने की रणनीति पर हमला करना जारी रखा. "अमृतसर में सिखों के सबसे पवित्र मंदिर स्वर्ण मंदिर को हथियारों के भंडार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए उन्होंने चरमपंथियों की निंदा की. इसके बाद उन्हें भी धमकियां मिलीं, और 12 मई 1984 को 64 गोलियां मारकर उनकी हत्या कर दी गई.”
सीमा आनंद अपने ब्लॉग में बताती हैं कि रोमेश पीटीआई के निदेशक थे और 1973 से इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी के कार्यकारी सदस्य थे. स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें ताम्रपत्र से सम्मानित किया था. उन्होंने आतंकवाद पीड़ितों के लिए 1983 में शहीद परिवार फंड की स्थापना की थी, जो अब तक करोड़ों रुपए एकत्र और वितरित कर चुका है. उनके छोटे बेटे अरविंद और पोते अभिषेक ने उनकी याद में रोमेश चंद्र मेमोरियल सोसाइटी की स्थापना की. यह संस्था शैक्षिक, सांस्कृतिक और खेलकूद से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा देती है.
मई 1984 में रोमेश की हत्या के बाद उनके भाई और पद्मश्री सम्मान प्राप्त विजय चोपड़ा ने सीएमडी और मुख्य संपादक का पद संभाला.
उसी साल जून में इंदिरा गांधी के आदेश पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले को मार दिया गया. लेकिन फिर भी पंजाब में प्रेस, विशेषकर हिंद समाचार समूह के लिए रास्ता सरल नहीं था. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 में ताजा धमकियों के बाद दिल्ली में अश्विनी कुमार चोपड़ा की सुरक्षा बढ़ा दी गई थी. और रॉबिन जेफ़री की किताब में कहा गया है कि 1993 की शुरुआत तक समूह के 60 से अधिक कर्मचारी मारे जा चुके थे.
अश्विनी चोपड़ा का पहला प्यार क्रिकेट था (वह रणजी टीम के कप्तान रहे थे). लेकिन अपने दादा और पिता की तरह वह राजनीति में सक्रिय रहे.
2014 से 2019 तक वह हरियाणा के करनाल से बीजेपी सांसद रहे. लेकिन निर्वाचन के कुछ समय बाद पार्टी नेताओं के साथ कथित तौर पर उनकी अनबन हो गई. बताया गया कि उनके क्षेत्र में टिकट वितरण के दौरान उनकी राय नहीं ली गई और उन्होंने मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाए जाने का विरोध किया था. पार्टी का नेतृत्व भी कथित रूप से उनसे नाराज़ था क्योंकि 2019 में एक संपादकीय में उन्होंने कांग्रेस और प्रियंका गांधी वाड्रा की बहुत तारीफ की थी.
उत्तराकार, विवाद और बंटवारा
जब बाहर युद्ध समाप्त हो रहा था, तो समूह के अंदर एक लड़ाई शुरू हो गई.
17 मई 2004 को जारी कंपनी लॉ बोर्ड के एक आदेश में चोपड़ा परिवार के भीतर के विवादों का पूरा इतिहास है, जो 1994 तक शुरू हो चुके थे.
25 जून, 1995 को विजय चोपड़ा, उनकी पत्नी स्वदेश चोपड़ा और बेटों, अविनाश और अमित (जिन्हें याचिकाकर्ता या ग्रुप बी कहा गया) और स्वर्गीय रोमेश चोपड़ा की पत्नी सुदर्शन चोपड़ा और दो बेटों, अश्विनी और अरविंद (जिन्हें प्रतिवादी या ग्रुप ए कहा गया) के बीच एक समझौता हुआ. दोनों पक्षों ने पारिवारिक समझौता पत्र यानी फैमिली सेटलमेंट मेमो पर दस्तख़त किए. बाद में इसे 6 मई, 1996 को एक और समझौते द्वारा बेहतर बनाया गया. फरवरी 1997 में दोनों एक शेयरधारक समझौते पर भी सहमत हुए और कंपनी के नियमों में संशोधन करके उस समझौते की शर्तों को प्रमुखता से शामिल किया.
लेकिन 1998 में बोर्ड की एक बैठक के बाद दोनों समूहों के बीच गतिरोध पैदा हो गए. 2004 में जारी उपरोक्त आदेश में कहा गया है कि छह सालों तक बोर्ड की कोई बैठक नहीं हुई. न ही इस दौरान समूह के खातों को लेकर कोई बैठक हुई.
यहां तक कि 2003 में, दोनों पक्षों के अनुरोध पर उसी बेंच को एक आदेश पारित करना पड़ा जिसमें भारत के कंपनी रजिस्ट्रार (आरओसी) को निर्देश था कि समूह द्वारा कानूनी दायित्वों का पालन न किए जाने के संबंध में 19 सितंबर, 2003 को जो नोटिस जारी किया गया था, उसपर आगे कार्रवाई न की जाए.
चूंकि, यह एक पारिवारिक कंपनी है, इसलिए बेंच ने दोनों पक्षों को सौहार्दपूर्ण ढंग से विवादों का निपटारा करने की सलाह दी और कहा कि पूर्ण विभाजन के लिए कंपनी के अलावा पारिवारिक व्यवसायों और संपत्तियों का भी समान रूप से बंटवारा किया जाए. ग्रुप बी को दो बराबर भाग या लॉट तैयार करके चुनाव का पहला विकल्प प्रतिवादियों को देना था. 14 फरवरी, 2000 को एक सुनवाई के दौरान, ग्रुप बी ने जालंधर और अंबाला की इकाइयों को लॉट 1 में और दिल्ली और जयपुर की इकाइयों को लॉट 2 में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा. लंबे समय से इन इकाइयों का संचालन इसी आधार पर होता रहा है.
लेकिन ग्रुप ए ने मध्यस्थता के लिए आवेदन किया, जिसे खारिज कर दिया गया. विभिन्न अदालतों में की गई अपीलें भी खारिज हो गईं. आखिरी अपील 2003 में खारिज हुई थी. अगले साल तक अदालत ने पाया कि दोनों समूहों ने एक-दूसरे के खिलाफ कई आरोप लगाए थे, जिसमें कंपनी के फंड की हेराफेरी और कंपनी के हितों के खिलाफ काम करने के आरोप भी थे. यह आरोप केवल व्यावसायिक न होकर व्यक्तिगत भी हो गए थे; यहां तक कि कर्मचारियों को भी लड़ाई में घसीट लिया गया.
अदालत ने इस गतिरोध और भरोसे की कमी पर ध्यान दिया और पिछले समझौतों के प्रावधानों पर विचार किया कि यदि विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल नहीं किया जा सकता तो कंपनी को दोनों पक्षों के बीच समान रूप से बांट दिया जाएगा. "आस्तियों (एसेट्स), दायित्वों (लायबिलिटीज़), ट्रेडमार्क, ट्रेड नाम और गुडविल" आदि का विभाजन इस तरह हो कि "कोई भी पक्ष दूसरे से अधिक लाभ में न रहे".
कोर्ट ने यह भी कहा कि "समान शेयरहोल्डिंग और प्रबंधन में समानता वाली पारिवारिक कंपनियों में गतिरोध की स्थिति में कंपनी को उचित और न्यायसंगत आधारों पर बंद किया जा सकता है" और हिंद समाचार समूह इसके लिए उपयुक्त है क्योंकि पिछले समझौतों में शेयरहोल्डिंग (प्रत्येक पक्ष के पास 49.1 प्रतिशत शेयर) और प्रतिनिधित्व (बोर्ड में प्रत्येक पक्ष के चार निदेशक) बराबर कर दिए गए थे. बाहरी लोगों के पास केवल 1.8 प्रतिशत शेयर थे.
तदानुसार, कोर्ट ने विभाजन का निर्देश दिया. जिसके तहत ग्रुप बी को लॉट 1 और ग्रुप ए को लॉट 2 दिया गया. इसमें प्रत्येक इकाई के साथ संबंधित आस्तियां और दायित्व भी थे. इसके अलावा, सभी सामान आस्तियों और दायित्वों का बराबर बंटवारा होना था या उसके बदले नकद रुपया दिया जाना था. गैर-मौद्रिक पहलुओं जैसे डिस्ट्रीब्यूशन का भी बराबर बंटवारा किया जाना था. ग्रुप बी को द हिंद समाचार लिमिटेड (टीएचएसएल) दिया गया और ग्रुप ए अलग नाम से अलग कंपनी बनाने के लिए स्वतंत्र था.
अंत में, चूंकि दोनों पक्ष टीएचएसएल से जुड़ी चार अन्य पार्टनरशिप फर्मों, एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और एक ट्रस्ट में समान रूप से रुचि रखते थे, अदालत ने इन सबके अलावा सभी पारिवारिक आस्तियों और संपत्तियों को विभाजित करने की सलाह दी.
ग्रुप ए को 14 जुलाई 2004 तक का समय दिया गया कि वह बताए कि क्या उसे यह व्यवस्था स्वीकार्य है या उसे किसी स्वतंत्र व्यक्ति द्वारा समान बंटवारा चाहिए. दोनों पक्षों को यह भी बताना था कि क्या इस बंटवारे में सभी फर्मों और अन्य पारिवारिक हितों को शामिल किया जाए या नहीं.
लेकिन, 2006 में बेंच ने अफसोस जताया कि दोनों पक्षों ने एक दूसरे के खिलाफ नए आरोप लगाए जबकि 2005 में वह विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए सहमत हुए थे. ग्रुप बी ने प्रस्ताव के अनुसार 2.4 करोड़ रुपए का मुआवजा प्राप्त करने के लिए मंजूरी भी दी थी, और सुदर्शन चोपड़ा सहमत हुईं थीं कि ग्रुप बी जब भी अनुरोध करेगा, वह उन्हें सौंपे गए क्षेत्रों के संबंध में प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ़ बुक्स एक्ट, 1867 के अनुसार कानूनी घोषणाएं जारी कर देंगीं. और जब तक इन आरोपों का निपटारा नहीं हो जाता, तब तक 19 अक्टूबर 2005 के उच्च न्यायालय के आदेश को लागू नहीं किया जा सकता था.
यह मुकदमा सालों तक चलता रहा.
इसलिए, भले ही ग्रुप ए और ग्रुप बी अदालत के उपरोक्त निर्देश के अनुसार उन्हें सौंपे गए लॉट को नियंत्रित कर रहे थे, 2006 से स्वतंत्र रूप से खातों का रखरखाव कर रहे थे, और ग्रुप ए को पहले ही 2.4 करोड़ रुपए का मुआवजा मिल चुका था, दिल्ली कोर्ट ने 2021 में कहा कि मुकदमा लंबित होने के कारण कंपनी का औपचारिक परिसमापन बाकी है.
अंततः, अगस्त 2022 में नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) ने कहा कि दोनों पक्षों में समझौता हो गया है, मौखिक पारिवारिक निपटान, या ओरल फैमिली सेटलमेंट के मेमोरेंडम को रिकॉर्ड पर रखा गया और चंडीगढ़ पीठ ने इसपर मुहर लगा दी.
पीठ ने फैसला सुनाया कि 19 अक्टूबर, 2005 के कंसेंट ऑर्डर को मेमोरेंडम में निर्धारित और संशोधित तरीके से लागू और प्रभावी किया जाएगा. और इसका निष्पादन दोनों पक्षों के सभी विवाद हल करेगा.
लॉट 1 के साथ द हिंद समाचार लिमिटेड विशेष रूप से ग्रुप बी (केवल लॉट 2 को छोड़कर) के पास है. टीएचएसएल के सभी शेयर जो अश्विनी कुमार चोपड़ा, अश्विनी कुमार चोपड़ा एचयूएफ, रोमेश चंद्र एंड संस एचयूएफ के नाम पर थे, 419 क्लास ए शेयर और 202 क्लास बी शेयर जो सुदर्शन चोपड़ा के पास थे और एक शेयर जो संयुक्त रूप से अश्विनी कुमार और अविनाश चोपड़ा के नाम पर था, उन्हें रद्द और समाप्त कर दिया गया.
इस प्रकार, बिना किसी अतिरिक्त कार्य या दस्तावेज़ के टीएचएसएल की शेयर कैपिटल उसी परिमाण में कम हो गई.
ग्रुप ए ने सितंबर 2021 में दैनिक समाचार लिमिटेड की स्थापना की. इसलिए, मेमोरेंडम में शामिल सभी आस्तियों और दायित्वों सहित लॉट 2, बिना किसी अतिरिक्त कार्य या कानूनी दस्तावेज के, एक कार्यशील इकाई के रूप में, सभी अधिकारों और प्राधिकरण के साथ, इस कंपनी को हस्तांतरित हो गया. इसके अलावा, लॉट 2 की प्राप्तियां (भुगतान, लोन, या अन्य कोई आय) भी नई कंपनी के खाते में हस्तांतरित की जाएंगीं.
अश्विनी कुमार चोपड़ा के कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में उनकी पत्नी किरण चोपड़ा, और बेटे आदित्य, आकाश और अर्जुन को शामिल किया गया. अश्विनी का 2020 में निधन हो गया. सभी पक्षों की सहमति के आधार पर, अश्विनी की मां सुदर्शन चोपड़ा ने उनकी संपत्ति में अपने सभी दावे छोड़ दिए. दोनों पक्षों को निर्देश दिया गया कि वह मेमोरेंडम के अनुसार उनके बीच लंबित सिविल और क्रिमिनल कार्यवाही को वापस लेने के लिए आवश्यक कदम उठाएं.
वर्तमान पोर्टफोलियो
शेयरधारकों की नवीनतम सूची सहित कंपनी के दस्तावेजों के अनुसार, समूह के प्रकाशन कुछ इस प्रकार हैं: जालंधर, लुधियाना, बठिंडा, चंडीगढ़, पालमपुर, पानीपत, हिसार, शिमला, रोहतक, जम्मू, जयपुर और अजमेर में पंजाब केसरी; दिल्ली में नवोदय टाइम्स; जालंधर, चंडीगढ़ और जम्मू में हिंद समाचार; और जालंधर, लुधियाना, बठिंडा और चंडीगढ़ में जगबाणी.
लेकिन यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इनमें से कौन से ग्रुप बी के पास हैं, जो जालंधर और अंबाला की इकाइयां या लॉट 1 हैं, और कौन ग्रुप ए के पास, जो दिल्ली और जयपुर की इकाइयां या लॉट 2 हैं.
रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़पेपर्स फॉर इंडिया के अनुसार, वर्तमान में पंजाब केसरी के सभी संस्करणों, हिंद समाचार के चंडीगढ़ संस्करण और जगबाणी के चंडीगढ़, लुधियाना और जालंधर संस्करणों का मालिकना हक द हिंद समाचार लिमिटेड के पास है. पंजाब केसरी पब्लिशिंग हाउस प्राइवेट लिमिटेड, नवोदय टाइम्स के दिल्ली और जालंधर संस्करण और जगवार्ता के दिल्ली संस्करण का मालिक है.
दैनिक समाचार लिमिटेड के अंतर्गत केवल पंजाब केसरी का दिल्ली संस्करण आता है.
जगबाणी की वेबसाइट पर एक सेक्शन बीबीसी पंजाबी की ख़बरों का है. ग्रुप के कई यूट्यूब चैनल भी हैं: पंजाब केसरी टीवी, जगबाणी टीवी, जुगाड़, यम, बॉलीवुड तड़का पंजाबी और पॉलीवुड तड़का.
पंजाब केसरी टीवी के 44.8 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर्स हैं. हिंदी समाचार के अलावा इस पर नॉन-न्यूज़ शो जैसे व्यंजन, यात्रा, मनोरंजन, शॉपिंग, किताबें, स्वास्थ्य, गैजेट और स्पेशल फीचर्स से जुड़े शो दिखाए जाते हैं. जगबाणी टीवी पंजाबी ख़बरों के लिए है और इसके 19.8 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर्स हैं. जुगाड़ के 1.57 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर्स हैं और इस पर डेली हैक्स और डीआईवाइ (डू इट योअरसेल्फ) प्रोजेक्ट्स पर वीडियो प्रकाशित होते हैं. और यम के 2.91 लाख सब्सक्राइबर्स हैं और यह व्यंजनों की रेसिपी से जुड़ा है. अन्य चैनल हैं बॉलीवुड तड़का पंजाबी और पॉलीवुड तड़का.
वित्तीय वर्ष 2022 के लिए केयर रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ सालों से समूह के सभी अख़बारों की कुल मिलाकर औसतन नौ लाख से अधिक प्रतियां रोज बिकतीं हैं. इसके अलावा, टीएचएसएल ने प्रिंट मीडिया में एक ब्रांड के रूप में मजबूत छवि बना ली है. सर्कुलेशन और रीडरशिप के मामले में यह उत्तर भारत, खासतौर पर पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के अपने सभी प्रतिद्वंदियों से आगे है.
स्वामित्व का पैटर्न
कंपनी ने शेयरधारकों की नवीनतम सूची दिसंबर 2022 में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय को सौंपी थी. इस सूची के अनुसार, द हिंद समाचार लिमिटेड के 20,782 क्लास ए शेयरों में से अधिकांश विजय कुमार के बेटों अविनाश चोपड़ा (45.92 प्रतिशत) और अमित चोपड़ा (46.15 प्रतिशत) के पास हैं.
परिवार के सदस्यों अभिजय चोपड़ा, अविनव चोपड़ा, अरोश चोपड़ा और अमिया मुंजाल में से हर एक के पास 1.4 प्रतिशत शेयर हैं. बाकी बचे 2.14 प्रतिशत शेयर 142 अन्य शेयरधारकों के पास हैं.
इसी तरह, क्लास बी के 2,445 शेयरों में से अधिकांश अविनाश (58.65 प्रतिशत) और अमित (39.5 प्रतिशत) के पास हैं. देवराज सरपाल और यशराज अबरोल के पास 10-10 शेयर हैं.
2018 में क्लास ए के कुल शेयर 14,809 और क्लास बी के 1,770 थे, जिनका शेयरहोल्डिंग पैटर्न लगभग ऐसा ही था. गौरतलब है कि सुदर्शन चोपड़ा और उनके परिवार के पास भी 2016 तक कुछ शेयर थे, जो लॉट 2 के तहत आते थे.
निदेशक और प्रमुख प्रबंधकीय अधिकारी
कंपनी का उपलब्ध पिछला वित्तीय लेखा-जोखा वित्त वर्ष 2021 का है, जिसमें कुछ निम्न विवरण हैं:
1. विजय कुमार चोपड़ा (अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक)
2. अविनाश चोपड़ा (संयुक्त प्रबंध निदेशक)
3. अमित चोपड़ा (संयुक्त प्रबंध निदेशक)
4. राजीव धीमान (स्वतंत्र निदेशक)*
5. शारदा आनंद (स्वतंत्र निदेशक)*
6. संजय कुमार गुप्ता (मुख्य वित्तीय अधिकारी)
*सीज़ेशन, यानी कर्मचारियों की सेवा समाप्ति के दस्तावेज़ बताते हैं कि शारदा आनंद और राजीव धीमान के साथ-साथ सुदर्शन, अरविंद और किरण चोपड़ा ने 2022 में इस्तीफा दे दिया था. उसी साल कंपनी ने मनीषा अरोड़ा और ऋचा शर्मा को अतिरिक्त निदेशक (गैर-कार्यकारी और स्वतंत्र) नियुक्त किया.
जैसा कि ग्रुप ए ने एक अदालती दस्तावेज़ में कहा है, अरविंद ने 1984 में कंपनी के विज्ञापन विभाग से शुरुआत की थी. बाद में उन्होंने कंपनी के अकाउंट्स और वित्तीय मामलों को देखा, और कंपनी के लिए फंड जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने कम्प्यूटरीकरण एवं विस्तारण परियोजनाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और एक प्रकाशन समूह के लिए जो मशीनरी आवश्यक होती है वह सब स्थापित की. उन्हें 1992 में टीएचएसएल का पूर्णकालिक निदेशक (वित्त और वाणिज्यिक) नियुक्त किया गया था.
दैनिक समाचार लिमिटेड के चार निदेशक हैं- आदित्य, किरण, अर्जुन और आकाश चोपड़ा. टॉफ़लर के अनुसार, उनके पास कोई प्रमुख प्रबंधकीय कर्मचारी नहीं है. इसका पिछला नाम न्यू हिंद समाचार लिमिटेड था.
आय का लेखा-जोखा
यह रिपोर्ट लिखे जाने तक कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के पास टीएचएसएल के केवल 2015 तक के वित्तीय विवरण उपलब्ध थे. कंपनी को उस वर्ष संचालन से 642 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ था. 2016 में यह राजस्व 80 करोड़ रुपए बढ़कर 762 करोड़ रुपए हो गया और उसके बाद इसमें धीरे-धीरे गिरावट देखी गई. 2017 में राजस्व गिरकर 751 करोड़ रुपए , 2018 में 735 करोड़ रुपए और 2020 में 708 करोड़ रुपए हो गया. सबसे बड़ी गिरावट 2021 में दर्ज की गई, जब राजस्व 524 करोड़ रुपए तक पहुंच गया.
टीएचएसएल की प्रॉफिटेबिलिटी 2015 में 30 करोड़ रुपए से बढ़कर अगले दो सालों में क्रमशः 39 करोड़ रुपए और 43 करोड़ रुपए हो गई. लेकिन 2018 में यह तेजी से गिरकर 20 करोड़ रुपए हो गई और 2019 में केवल 1 करोड़ रुपए रह गई. प्रॉफिटेबिलिटी या लाभप्रदता बताती है कि कोई कंपनी किस हद तक मुनाफा कमा सकती है. कोविड-19 महामारी के दो सालों में समूह घाटे में चला गया. इसने 2020 में 7 करोड़ रुपए और 2021 में 8 करोड़ रुपए का घाटा दर्ज किया.
केयर रेटिंग्स रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में सब्सक्रिप्शन और विज्ञापन दोनों से टीएचएसएल को होने वाली कमाई में सबसे बड़ा योगदान पंजाब केसरी और जगबाणी ने दिया.
वित्त वर्ष 2021 के विवरणों के अनुसार, कंपनी की लॉट 1 जालंधर इकाइयों को समग्र वित्तीय विवरण तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसने 31 मार्च, 2020 तक सहायक कंपनियों पंजाब केसरी ग्रुप हॉस्पिटैलिटी प्राइवेट लिमिटेड, पंजाब केसरी ग्रुप होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड, पंजाब केसरी ग्रुप एस्टेट्स प्राइवेट लिमिटेड, पंजाब केसरी ग्रुप इंफ्रा प्राइवेट लिमिटेड, पंजाब केसरी ग्रुप रियल्टी प्राइवेट लिमिटेड, एचएसएल रिन्यूएबल पावर प्राइवेट लिमिटेड में अपनी पूरी हिस्सेदारी ट्रांसफर कर दी है. इसलिए, फिलहाल कंपनी के पास कोई सहायक कंपनियां नहीं हैं.
मालिकाना हक़ और वित्त संबंधी सारी जानकारी संबंधित मीडिया हाउस द्वारा कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के साथ दायर वित्तीय विवरणों और अन्य कंपनी दस्तावेजों से ली गई हैं.
संदर्भ
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3. प्रेस इन इंडिया बुक (1958)/भारत के समाचार पत्रों के रजिस्ट्रार (आरएनआई) की वार्षिक रिपोर्ट (1958)
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21. दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश - 22 मार्च, 2021
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23. एनसीएलएटी चंडीगढ़ बेंच का आदेश - जुलाई 29, 2022
24. एमसीए दस्तावेज़
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26. आरएनआई
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