जिन गांवों में पहुंचने के लिए 24 घंटे पैदल सफर तय करना होता है उन गांवों में पुलिसिया दमन और नक्सली हिंसा की ख़बरें देश तक कैसे पहुंचेंगी?
12 अगस्त:
रात के साढ़े नौ बजे हैं. दंतेवाड़ा पहुंचे मुझे 24 घंटे पूरे होने को हैं. अब तक मुझे यहां से आगे बढ़ जाना चाहिए था लेकिन आगे का सफ़र अकेले तय करना मुमकिन नहीं. जिस स्थानीय सूत्र के साथ मुझे दंतेवाड़ा से आगे जाना था, उससे फिलहाल मेरा कोई संपर्क नहीं हो पा रहा. आज की रात भी मुझे अब दंतेवाड़ा के इकलौते होटल में ही गुजारनी है.
छत्तीसगढ़ की ये मेरी पहली यात्रा है. पहली ही यात्रा में मुझे राज्य के उन इलाकों में जाना है जो छत्तीसगढ़ के भी अधिकतर लोगों के लिए अनदेखे हैं. मुझे सुकमा जिले के उन गांवों तक पहुंचना है जहां बीते छह अगस्त को 15 लोगों की पुलिस एनकाउंटर में मौत हुई है. ये गांव दंडकारण्य के घने जंगलों के बीच बसे हैं और मोटर रोड से 20-25 किलोमीटर की पैदल दूरी पर हैं. जंगल के बीच बनी भटकाऊ पगडंडियां ही इन गांवों तक पहुंचने का एक मात्र रास्ता हैं.
अकेले इन गांवों की तरफ बढ़ने पर सिर्फ रास्ता भटक जाने का ही खतरा नहीं है. इस क्षेत्र में ‘शक्ति और सत्ता’ के कई समानांतर केंद्र काम करते हैं. ऐसे में आप किसी के भी निशाने पर हो सकते हैं. हर बाहरी व्यक्ति यहां शक के दायरे में देखा जाता है. आप नए और अकेले हैं तो सैन्य बल या पुलिस आपको नक्सलियों का समर्थक/जासूस/मुखबिर/दूत समझ सकती है और नक्सली आपको पुलिस का समर्थक/जासूस या मुखबिर.
जिन गांवों में मुझे पहुंचना है वे कोंटा थाना क्षेत्र में आते हैं. कोंटा सुकमा जिले का आखिरी थाना क्षेत्र है. यहां चार अलग-अलग राज्यों की सीमाएं मिलती हैं. ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़. शबरी नदी, जो कि गोदावरी की ही एक उपधारा है, कई जगहों पर राज्यों की सीमाएं तय करती हुई बहती है. कोंटा के इन गांवों में आंध्र प्रदेश या तेलंगाना से भी दाखिल हुआ जा सकता है. लेकिन इन रास्तों से गांव तक पहुंचने के लिए पैदल चलने के साथ ही नदियां भी पार करनी होती हैं. ये रास्ता चुनना मेरे लिए अंतिम विकल्प है.
दंतेवाड़ा में ही रहने वाले एक पत्रकार मित्र ने मुझे एक तीसरा विकल्प भी दिया है. उनका सुझाव था कि मैं अगले दिन सुबह दोरनापाल निकल जाऊं जहां से उनका कोई परिचित मुझे गांवों तक पहुंचा देगा. दोरनापाल यहां से लगभग 110 किलोमीटर है. ये एक अच्छा विकल्प हो सकता है लेकिन कल सार्वजनिक यातायात पूरी तरह से बंद रहेगा. नक्सलियों ने 13 अगस्त को सुकमा बंद की घोषणा की है. ऐसे में कल कोई भी बस दंतेवाड़ा से सुकमा की तरफ नहीं जाएगी. अभी कुछ चार दिन पहले ही नक्सलियों ने दंतेवाड़ा के पास एक ट्रक और दो बसें फूंक डाली थी. लोगों का कहना है कि बसों में आग लगाने से पहले उन्होंने सभी सवारियों को उतार दिया था लेकिन अगले दिन बस में एक जला हुआ शव भी मिला.
बस्तर के दुर्गम गांवों, जहां पहुंच कर मुझे एक जरूरी रिपोर्ट लिखनी थी, तक पहुंचने की मेरी उत्सुकता में अब हताशा के अंश भी घुलने लगे हैं. दिल्ली से इतनी दूर आने के बाद अगर मैं उन गांवों तक नहीं पहुंच सका तो ये पूरी यात्रा ही विफल रहेगी. एक विकल्प ये भी है कि मैं कल दंतेवाड़ा से बाइक लेकर दोरनापाल के लिए निकल जाऊं. बाइक का इंतजाम दंतेवाड़ा के मित्र आसानी से कर देंगे. लेकिन इस विकल्प को चुनने में कई चुनौतियां हैं. एक तो नक्सलियों के बंद के कारण कल कोई भी हिंसक घटना हो सकती है. दूसरा, सुरक्षा बल के जवान भी मुझे आगे जाने से रोक सकते हैं.
रात के करीब 11 बजे मेरे सूत्र का मुझे फ़ोन आया. ‘सर बारिश में कई घंटों तक भीगा हूं. रास्ते में बाइक पंचर हो गई थी और आस-पास कोई पंचर वाला नहीं था. बाइक वहीं छोड़ के मैं घर लौट आया हूं. लेकिन आप चिंता मत कीजिये, मैं कल दोपहर से पहले दंतेवाड़ा पहुंच जाऊंगा और हम लोग कल ही गांव के लिए निकल पड़ेंगे.’ ‘लेकिन कल तो सुकमा बंद है.’ मेरे इस सवाल पर जवाब आया, ‘गाड़ी की व्यवस्था हो गई है. कुछ अन्य लोग भी हमारे साथ चलेंगे.’
इस फ़ोन कॉल ने मेरी निराशा को काफी हद तक ख़त्म कर दिया. अब मुझे बस ये चिंता है कि कहीं सैन्य बलों के जवान मुझे गांवों में दाखिल होने से पहले ही न रोक लें. 6 अगस्त को हुए एनकाउंटर की पड़ताल के लिए अब तक जितने भी पत्रकारों ने इन गांवों में जाने की कोशिश की है, उन्हें सुरक्षा बलों ने मौके पर जाने से रोक दिया है. अंग्रेजी के एक बड़े अखबार के पत्रकार तो कोंटा से आगे पहुंच चुके थे लेकिन वहां उन्हें पुलिस ने रोक लिया. यहां अक्सर पुलिस पत्रकारों को परोक्ष रूप से चेताती है. मसलन, पत्रकारों को कहा जाता है ‘जंगल में हमारी टुकड़ियों के ऑपरेशन जारी हैं. हमारी सलाह है कि आप वहां न जाएं. अगर कुछ भी होता है तो इसकी जिम्मेदारी आपकी अपनी होगी.’
इतना ही नहीं, कई बार सैन्य बल अपने लोगों को पत्रकारों के पीछे लगा देते हैं. ऐसे में नक्सली इलाकों से रिपोर्टिंग करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है. क्योंकि तब पत्रकार नक्सलियों के भी निशाने पर आ सकते हैं. इस लिहाज से देखें तो बस्तर से रिपोर्टिंग करना कश्मीर से रिपोर्टिंग करने से कहीं ज्यादा कठिन है.
कश्मीर में सैन्य बलों की बहुतायत भले ही विवाद का सवाल हो लेकिन उनकी मौजूदगी पत्रकारों को सुरक्षा का भाव देती है. लेकिन बस्तर में ऐसा नहीं है. यहां पत्रकारों को सैन्य बलों और सत्ताधारी पार्टियों से भी उतना ही खतरा है. इसके कई उदाहरण बस्तर में मौजूद हैं. न जाने कितने ही मुफस्सिल पत्रकारों को यहां पुलिस ने झूठे मुकदमों में फंसाया है. कई पत्रकार सालों तक जेलों में पड़े रहे और न जाने कितनों पर तो सीधे हमले हो चुके हैं. ये हमले नक्सलियों ने नहीं बल्कि राज्य द्वारा समर्थित संगठनों ने किए हैं.
इस कारण बस्तर में रिपोर्टिंग का स्वरूप ही बदल गया है. यहां अक्सर सिर्फ वही ख़बरें छपती हैं जो सैन्य बलों, पुलिस या सरकार की प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से आती हैं. मौके पर जाकर पड़ताल करना और फिर रिपोर्ट करना, ये चलन बस्तर में बहुत सीमित हो चुका है. जो चुनिंदा पत्रकार बस्तर से ऐसी रिपोर्टिंग कर भी रहे हैं, वे सभी अब सरकार के निशाने पर हैं और उन्हें नक्सलियों का समर्थक या ‘अर्बन नक्सल’ कहा जाने लगा है. सरकार का एक बड़ा तंत्र यहां ख़बरों को दबाने में सक्रिय है. इस पूरे तंत्र से बचते हुए मुझे इन गांवों तक पहुंचना है. मेरे सूत्र ने पूरे आत्मविश्वास के साथ ये जिम्मेदारी ली है कि वो मुझे गांवों तक पहुंचा देगा.
13 अगस्त:
सुबह के नौ बजे हैं. दंतेवाड़ा की सड़कों पर ट्रैफिक कल से काफी कम है. आज नक्सलियों ने सुकमा बंद का ऐलान किया है और इसका असर दंतेवाड़ा में भी नज़र आ रहा है. यहां से सुकमा के लिए गाड़ियां पूरी तरह से बंद हैं.
दोपहर करीब साढ़े 12 बजे मेरी मुलाक़ात मेरे सूत्र से हुई. दंतेवाड़ा के मशहूर दंतेश्वरी मंदिर के पास ही वो अपने कुछ साथियों के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे थे. यहीं से हम कोंटा के लिए रवाना हुए. कोंटा यहां से लगभग 150 किलोमीटर दूर है. उम्मीद है कि शाम को अंधेरा होने से पहले हम कोंटा पहुंच जाएंगे.
दंतेवाड़ा से हम सात लोग गांवों के लिए निकले हैं. मेरे अलावा बाकी सभी लोग छत्तीसगढ़ के ही रहने वाले हैं. वे सभी इस इलाके से भी परिचित हैं. सड़क पर गाड़ियां आज बहुत कम हैं. सिर्फ निजी वाहन ही सड़क पर दिखाई पड़ रहे हैं और उनकी संख्या भी ज्यादा नहीं है. जल्द ही हम उसी नेशनल हाईवे 30 पर आ चुके हैं जो नक्सल गतिविधियों के लिए कुख्यात है. ये हाईवे कई-कई बार उजाड़ा गया है और न जाने कितने ही सुरक्षा बलों ने इस हाईवे पर अपनी जान गंवाई है.
सुकमा शहर पार करने के बाद ये महसूस किया जा सकता है कि हम नक्सलियों के मजबूत इलाकों की तरफ बढ़ रहे हैं. थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सीआरपीएफ के कैम्पस हैं जिनकी ज़बरदस्त घेराबंदी की गई है. कैम्पस के बंकरों से झांकती जवानों की निगाहें और बंदूकें हर आहट को भांपने के लिए मुस्तैद हैं. इस हाईवे पर कई ऐसी निशानियां भी हैं जो नक्सलियों और सुरक्षा बलों के टकराव की गवाही देती हैं. कहीं मारे गए ग्रामीणों के स्मारक बने हैं, कहीं लाल सलाम देते स्मारक और कहीं शहीद हुए जवानों के स्मारक.
इस हाईवे पर कई बार माइंस बिछाकर सैन्य बलों पर हमले हुए हैं. इस सड़क पर चलते हुए ये तमाम बातें ज़ेहन में बार-बार आती हैं कि यहां कभी भी-कुछ भी अप्रत्याशित हो सकता है. और आज तो नक्सलियों ने बंद का ऐलान किया है लिहाजा ये खतरा और भी बढ़ जाता है. नेशनल हाईवे 30 का निर्माण कार्य कई चुनौतियों के बावजूद अब काफी हद तक पूरा हो चुका है. बस कोंटा से कुछ किलोमीटर पहले इसका काम अभी अधूरा है जो शायद जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा. इस पूरे सफ़र में हमें सबसे ज्यादा समय कोंटा से ठीक पहले के कुछ किलोमीटर तय करने में ही लगा.
शाम करीब सात बजे हम लोग कोंटा पहुंचे. यहां से आगे का सफ़र हमें पैदल ही तय करना है. हमारे सूत्र ने कोंटा से सटे हुए एक गांव में गाड़ी खड़ी करने की व्यवस्था कर दी है. अंधेरा काफी हो चुका है लिहाजा एक बड़े टॉर्च की भी व्यवस्था की गई. कोंटा से हम सबने अपने-अपने लिए छाते खरीदे लिए हैं और साढ़े सात बजे हमने अपना पैदल सफ़र शुरू किया.
हमें गोमपाड गांव पहुंचना है. ये गांव कोंटा से करीब बीस किलोमीटर दूर है. एक कच्ची सड़क इस गांव की तरफ थोड़ी आगे तक बढ़ती तो है लेकिन उस पर गाड़ी चलना संभव नहीं है. गड्ढों से भरी इस सड़क पर बारिश के कारण इतना कीचड़ हो चुका है कि छोटी गाड़ी के पहिए इस पर आगे नहीं बढ़ सकते. वैसे अगर ये कीचड न भी तो भी इस सड़क पर गाड़ी चलना संभव नहीं है. सड़क पर जगह-जगह बड़े-बड़े पेड़ गिरा दिए गए हैं ताकि यहां कोई भी गाड़ी दाखिल न हो सके.
नक्सलियों की मौजूदगी के निशान इस पैदल मार्ग पर जगह-जगह आसानी से देखने को मिलते हैं. सड़क के आस-पास कई जगहों पर सीपीआई (माओवादी) के ‘क्रांतिकारी नारे’ लिखे हुए दिखाई देते हैं. जल्द ही ये सड़क पतली पगडंडी में बदल जाती है और तब ये एहसास होता है कि हम दंडकारण्य के जंगलों में दाखिल हो चुके हैं. सीआरपीएफ कैंप की जो रौशनी कुछ देर पहले तक दिखाई पड़ रही थी, अब वह भी बहुत पीछे छूट चुकी है. इससे आगे सैन्य बलों की मौजूदगी नहीं है. कहा जा सकता है कि यही वो जगह है जहां से ‘सत्ता और शक्ति’ का केंद्र बदल जाता है. आगे का इलाका नक्सलियों का है जहां राज्य से ज्यादा मजबूत पकड़ उनकी ही है.
अंधेरे में चलना काफी मुश्किल है. हम सात लोग हैं और हमारे पास सिर्फ एक ही टॉर्च है. कुछ साथी अपने मोबाइल की टॉर्च के सहारे आगे बढ़ रहे हैं लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता. मेरे पास दो मोबाइल और एक बैटरी-बैंक भी है लेकिन फिर भी मैं मोबाइल की बैटरी टॉर्च में बर्बाद करने का रिस्क नहीं ले सकता. मुझे सारी तस्वीरें और वीडियो मोबाइल से ही लेने हैं इसलिए मेरी कोशिश है कि इनका पूरा इस्तेमाल सिर्फ इसी काम में किया जाए. इस इलाके में मोबाइल और किसी काम आता भी नहीं. सिर्फ बीएसएनएल का नेटवर्क ही यहां काम करता है और वह भी जंगल में ज्यादा अन्दर जाने पर बंद हो जाता है.
करीब आधा घंटा पैदल चलने के बाद मेरे आगे चल रहा व्यक्ति अचानक ठिठक कर ठहरता है. टॉर्च की रौशनी को वह जमीन पर बाएं ओर फेरता है तो एक काया सरपट झाड़ियों की तरफ रेंगती हुई दिखाई पड़ती है. करीब दो फुट का एक सांप उसके पैर के बिलकुल पास से होकर निकला है. ये ऐसी चुनौती थी जिसके बारे में मैंने अब तक सोचा भी नहीं था. मेरे मन में वे तमाम चुनौतीपूर्ण संभावनाएं तो थीं जो यहां के राजनीतिक माहौल से पैदा हुई हैं लेकिन रात में घना जंगल पार करना अपने-आप में एक चुनौती है, इसका ध्यान अब तक नहीं आया था.
दिल्ली के मेरे साथियों ने मुझे यह जरूर चेताया था कि उस क्षेत्र में जाने से पहले कुछ बेहद जरूरी तैयारियां पूरी कर लेना. दिल्ली से जो भी पत्रकार दंडकारण्य के इन जंगलों में आए हैं, अधिकतर वापस जाकर बीमार पड़े हैं. तहलका के हमारे साथी तरुण सहरावत की तो यहां से लौटकर इतनी तबीयत बिगड़ गई थी कि लाख कोशिशों के बाद भी उनकी जान नहीं बचाई जा सकी. मैंने इन बातों को ध्यान में रखते हुए ‘फर्स्ट-ऐड’ की मूलभूत चीज़ें दिल्ली से निकलते हुए साथ रख ली थी.
ढाई घंटे में लगभग दस किलोमीटर पैदल चलने के बाद हम एक गांव में पहुंचे. यहां लगभग हर घर में एक-एक सोलर बल्ब टिमटिमा रहा है. ऐसे ही एक घर के बाहर पहुंचकर मेरे सूत्र ने अपने एक दोस्त को आवाज़ दी. मंगल (बदला हुआ नाम) घर से बाहर आया. यहां से आगे का रास्ता मंगल को ही हमें दिखाना है. लेकिन उसने रात को आगे जाने से मना किया. मंगल का कहना है, ‘अभी जो घटना हुई है उसके बाद रात को आगे जाना ठीक नहीं है. दादा लोग रास्ते में मिल जाएंगे तो परेशानी हो सकती है.’ दादा लोग- इन गांवों में अधिकतर लोग नक्सलियों को इसी नाम से बुलाते हैं.
तय हुआ कि आज रात हम इसी गांव में बिताएंगे. मंगल ने अपने घर के आंगन में हमारे लिए चारपाइयां लगा दी. इस आंगन के ऊपर सूखी घास की छप्पर है इसलिए लगातार हो रही बारिश में भी यहां रात बिताने में कोई दिक्कत नहीं है. गांव के कुछ और लोग भी हमें देखकर जमा हुए और थोड़ी बातचीत के बाद लौट गए. भाषा भी यहां एक बड़ी चुनौती है. अधिकतर लोग सिर्फ गोंडी बोली ही बोलते हैं. गांव में बहुत कम ही लोग हैं जो हिंदी बोल या समझ पाते हैं. इसलिए गांववालों से बात करने के लिए हमें मंगल की जरूरत थी जो ट्रांसलेटर का भी काम कर सके.
(क्रमश: – दूसरे हिस्से में पढ़िए दंडकारण्य की खूबसूरती, बदलती आदिवासी परंपराएं और इस इलाके में पत्रकारिता की मुश्किलें)