ओम प्रकाश राजभर के रूप में एक और सहयोगी खो बैठी है भाजपा

राजभर के एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ने के फैसले से पूर्वी यूपी की 10 लोकसभा सीटों के चुनाव परिणाम पर असर पड़ सकता है, जहां राजभर समुदाय के एक लाख से अधिक वोट हैं.

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देश में चल रहे आम चुनाव के बीच ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मैदान उत्तर प्रदेश में, उसके अपने ही एक सहयोगी ने झटका दे दिया है, जहां 543 संसदीय सीटों में से 80 सीटों पर चुनाव होते हैं.

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने घोषणा की है कि वह लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर लड़ेंगे और उन्होंने 39 उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी है. उन्होंने यह भी कहा है कि भाजपाई नरेंद्र मोदी को दोबारा पीएम बनना देखना चाहते तो मुझे ज़रूर ढूंढ़ते. इस सूची में राजभर ने प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ वाराणसी से, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के ख़िलाफ़ लखनऊ से और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय के ख़िलाफ़ चंदौली से उम्मीदवार उतारे हैं. गौरतलब है कि राजभर योगी आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री भी हैं.

हाल में, राजभर ने लखनऊ में मीडियाकर्मियों से बातचीत में कहा था कि “भाजपा ने प्रदेश में हमारी पार्टी के समर्थन से सत्ता हासिल की है, फिर भी वे हमें एक भी सीट देने को तैयार नहीं है. जबकि अपना दल (एस) को दो सीटें दे दी गयी हैं. अपने अस्तित्व के लिए हमने 39 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है.”

यह सब तब हुआ था जब पिछले हफ़्ते, रविवार के तड़के तीन बजे गुस्साये राजभर अपना इस्तीफ़ा लेकर लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास पहुंच गये थे और उनसे मिलने की मांग की थी. हालांकि, उन्हें बताया गया कि मुख्यमंत्री सो रहे हैं.

राजभर पिछले कुछ समय से असंतुष्ट चल रहे थे, जिन्होंने साल 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन किया था. उनकी सत्रह साल पुरानी पार्टी का अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजभर समुदाय के बीच एक मजबूत आधार है.

उत्तर प्रदेश में जहां एक तरफ भाजपा की कट्टर प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिलाया है, कांग्रेस ने अपना तुरुप का पत्ता और पूर्वी उत्तर प्रदेश की महासचिव प्रियंका गांधी को उतारा है. अब सुभासपा के अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा को एक महत्वपूर्ण सहयोगी खोने का नुकसान उठाना पड़ सकता है. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “राजभर पूर्वी यूपी की कम से कम 10 संसदीय सीटों, जैसे गाजीपुर, बलिया, देवरिया, घोसी, सलेमपुर और चंदौली में चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं. राजभर के बिना, ओबीसी वोटों -जिसमें उनके समुदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है- तक हमारी व्यापक पहुंच शायद उस तरह से न पहुंचे, जिस तरह से साल 2017 में पहुंची थी, जब हमने 403 सीटों में से 320 सीटें जीती थीं.”

राजभर ने अपनी पार्टी के लिए 31 सीटें मांगी थीं. उन्हें खुश करने के लिए योगी ने चुनाव से पहले आदर्श आचार संहिता लागू होने के एक दिन पहले विभिन्न आयोगों के उपाध्यक्ष, जिनकी रैंक कैबिनेट मंत्री के बराबर है, के पदों पर राजभर के नौ नज़दीकी सहयोगियों की नियुक्ति की थी.

एक प्रमुख हिंदी दैनिक के लखनऊ और नोएडा संस्करणों के संपादक सुधीर मिश्रा को लगता है कि राजभर भाजपा पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे. “बीजेपी को कम से कम एक सीट देने को मजबूर करने के लिए, कुछ दिन पहले अकेले चुनाव लड़ना की धमकी देकर राजभर ने आख़िरी दांव खेला था. पर ये दांव भी नहीं चला. प्रदेश में राजभर की पार्टी आधा दर्जन सीटों पर भाजपा का खेल बिगाड़ सकती है.”

मिश्रा आगे कहते हैं, “गैर-यादव, गैर-जाटव, दलित भाजपा की सफलता के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उन्होंने साल 2014 के चुनाव में पार्टी का समर्थन किया था. सपा यादवों पर निर्भर रहती है, लेकिन अन्य ओबीसी वोटर, जैसे राजभर, शाक्य, सैनी, कुशवाहा, आदि जिनके पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रत्येक सीट पर 10,000-20,000 वोट हैं, ने मुख्य रूप से सुभासपा और अपना दल के साथ गठबंधन के कारण पिछली बार भाजपा का साथ दिया था. चूंकि अपना दल (के) का एक गुट अब कांग्रेस के साथ है, ऐसे में सुभासपा का एनडीए से हटना वाराणसी के आसपास की सभी सीटों पर भाजपा को परेशान कर सकता है.”

हाल में, अखिल भारतीय राजभर संगठन ने राजभर की ‘ब्लैकमेलिंग’ रणनीति की निंदा की थी और सुभासपा के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने की धमकी दी थी.

बीजेपी के प्रवक्ता नवीन श्रीवास्तव ने भी हालिया बयान में कहा था कि “हमने अभी भी घोसी निर्वाचन क्षेत्र के लिए उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है, क्योंकि हम चाहते हैं कि सुभासपा के उम्मीदवार हमारे टिकट से चुनाव लड़ें. राजभर चाहते हैं कि उम्मीदवार सुभासपा के टिकट से चुनाव लड़ें. इस पर बातचीत की जानी है.” लेकिन ऐसा लगता है कि बातचीत बेकार चली गयी है. घोसी सीट पर मतदान 19 मई को होना है.

दस सीटों पर बीस हज़ार से एक लाख तक वोट

राजभर समुदाय यूपी की आबादी का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन लगभग 125 विधानसभा सीटों और लगभग 10 लोकसभा सीटों पर मौजूद है. पूर्वी यूपी में इनकी आबादी 20 प्रतिशत है. भाजपा के नेताओं का कहना है कि इन सीटों में से प्रत्येक पर इस समुदाय के 20,000 से 1 लाख तक वोट हैं.

2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की भारी सफलता के पीछे राजभर की पार्टी के साथ गठबंधन को एक बड़ा कारण माना गया था, जिसमें ओबीसी वोट बैंक पर निर्भर रहने वाली सपा बुरी तरह से हार गयी थी.

सुभासपा ने आठ सीटों पर चुनाव लड़ा था और चार सीटें जीतकर पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा में प्रवेश किया था.

‘एंग्री यंग मैन’ राजभर

छप्पन वर्षीय राजभर गाजीपुर जिले के एक अविकसित निर्वाचन क्षेत्र जहूराबाद से विधायक हैं. वह लंबे समय से 27 फीसदी ओबीसी कोटा का उप-वर्गीकरण करने की मांग कर रहे थे और उन्होंने धमकी दी थी कि अगर भाजपा ऐसा नहीं करती, तो वे सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करेंगे.

राजनीतिक विश्लेषक शिव शरण गहरवार कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में राजभर के साथ भाजपा का रिश्ता लगभग वैसा ही है, जैसा महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के साथ है.”

जब योगी सरकार को जुलाई 2017 में केवल चार महीने पूरे हुए थे, तब राजभर ने तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट के ख़िलाफ़ गाजीपुर में कलेक्ट्रेट परिसर में धरना देने की धमकी दी थी. उन्होंने आरोप लगाया था कि जिला मजिस्ट्रेट लोगों की समस्याओं को नहीं सुन रहे हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाक़ात के बाद धरना नहीं दिया.

पिछले साल उन्होंने यूपी में राज्यसभा चुनाव का बहिष्कार करने की धमकी दी थी. इस पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हस्तक्षेप किया, उन्होंने राजभर को मनाने के लिए दिल्ली बुलाकर बैठक भी की थी.

राजभर ने दो महीने पहले मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. बीजेपी पर ओबीसी समुदाय की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए, उन्होंने अपना पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग छोड़ने की पेशकश भी की थी (उनके पास विकलांग जन विकास विभाग भी है). योगी ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया. योगी सरकार के कट्टर आलोचक राजभर ने न केवल यह आरोप लगाया है कि योगी राम मंदिर के मुद्दे पर देश को गुमराह कर रहे थे, बल्कि यह भी दावा किया कि योगी के शासनकाल में भ्रष्टाचार और अपराध बढ़ गया.

निषादों (ओबीसी) की दो छोटी पार्टियों ने भी हाल ही में भाजपा के साथ हाथ मिलाया था, जिसके बाद राजभर कथित तौर पर अलग-थलग महसूस कर रहे थे.

बसपा से अपना दल और फिर ख़ुद की पार्टी तक का सफर

राजभर ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत बसपा के साथ की. उन्होंने पार्टी के संस्थापक कांशीराम के साथ काम किया और वाराणसी में बसपा के जिला अध्यक्ष बने. मायावती के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद राजभर ने 18 दिनों के लिए एक धरना दिया, जहां पर उन्होंने सरकार पर अति पिछड़े समुदायों के हितों की अनदेखी करने का और दलितों के केवल एक वर्ग के लिए काम करने का आरोप लगाया.

आख़िरकार उन्होंने बसपा छोड़ दी और अपना दल में शामिल हो गये और उसके यूथ विंग के प्रदेश अध्यक्ष बने. चुनाव का टिकट न मिलने पर उन्होंने अपना दल भी छोड़ दिया. उसके बाद राजभर ने 2002 में सुभासपा बनायी.

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