सूचना अधिकार संशोधन विधेयक और इससे जुड़े तमाम सवालों पर नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) की सह-संयोजक अंजली भारद्वाज से बातचीत.
गुरुवार को सूचना अधिकार संशोधन विधेयक हंगामे और विपक्ष के विरोध के बीच राज्यसभा से भी पास हो गया और अब इसका रास्ता साफ है. सरकार ने संशोधन के ज़रिये सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन तय करने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया है. जहां सरकार कहती है कि यह संशोधन आरटीआई कानून की कमियों को दूर करेगा वहीं सूचना अधिकार के जानकारों का साफ कहना है कि सरकार ने कानून की आत्मा को ही खत्म कर दिया है.
अब सूचना आयुक्तों की नियुक्ति 5 साल के लिये होती थी, जिसमें शर्त यह थी कि अगर कोई सूचना आयुक्त उससे पहले 65 साल का हो जाये तो उसे रिटायर होना पड़ेगा. अब सरकार चाहे तो किसी भी सूचना आयुक्त को सिर्फ एक साल के लिये भी नियुक्त कर सकती है. संशोधन को लेकर जानकारों का तर्क यह है कि अगर आम नागरिकों को सूचना देने के लिये निर्देश देने वाले सूचना आयुक्तों का कार्यकाल और वेतन सरकार के हाथ में होगा तो फिर वह निर्भय होकर निष्पक्ष रूप से कैसे काम कर पायेंगे.
क्या अगर किसी सूचना आयुक्त के आदेश से सरकार को शर्मिंदा करने वाली या आला पदों पर बैठे मंत्रियों के खिलाफ तथ्य जुटाने वाली जानकारी सामने आयी तो उसका कार्यकाल सीमित नहीं रह जायेगा. केंद्रीय सूचना आयोग समेत देश के तमाम राज्यों में आज सूचना आयुक्तों के अधिकांश पद खाली पड़े हैं. इसका असर सूचना अधिकार कानून की उपयोगिता पर पड़ रहा है. अब नये संशोधन क्या पारदर्शिता लाने वाले कानून पर हमला नहीं है.
आरटीआई संशोधन बिल और इससे जुड़े तमाम सवालों पर नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) की सह-संयोजक अंजली भारद्वाज से वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी की खास बातचीत.