मोदी सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किए गए बाबूलाल दाहिया के खेती-किसानी पर विचार.
नरेंद्र मोदी सरकार की तारीफ इसलिए भी की जाती है कि उन्होंने देश के सर्वोच्च सम्मान को आम लोगों तक पहुंचाया है. इसी साल कई ऐसे आम लोगों को पद्म पुरस्कार दिया गया जो अपने क्षेत्र में सालों से बेहतरीन काम कर रहे हैं. ऐसे ही एक व्यक्ति मध्य प्रदेश के सतना जिले के किसान बाबूलाल दाहिया भी हैं, जिन्हें सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया. दहिया पारंपरिक बीजों के संरक्षण और परंपरागत खेती को बढ़ावा देने की दिशा में लंबे समय से काम कर रहे हैं.
न्यूज़लॉन्ड्री ने बाबूलाल दाहिया से भारत में खेती-किसानी के भविष्य और किसानों के हित में सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम योजनाओं को लेकर बातचीत की.
भारत अब कृषि प्रधान देश नहीं
आजादी के बाद से ही भारत की पहचान को लेकर एक जुमला सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता रहा है कि यह एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन बाबूलाल दहिया का मानना है कि भारत अब एक कृषि प्रधान देश नहीं रहा. इसको लेकर दाहिया कहते हैं, ‘‘गांव में अब कोई खेती करने वाला नहीं बचा है. अब पूरी तरह से यांत्रिक खेती हो रही है तो काहे का भारत कृषि प्रधान देश बचा है.’’
दाहिया बताते हैं, ‘‘आप किसी भी गांव में जाकर देखिए कि एक परिवार के कितने लोग खेती से जुड़े हैं और कितने बाहर कमाने चले गए. मैं जो देख रहा हूं उसके अनुसार गांव की 80 से 90 प्रतिशत आबादी कृषि छोड़ कोई और काम-धंधा कर रही है. कोई बाहर जाकर मजदूरी कर रहा है तो कोई विदेश में जाकर. कोई भी खेती नहीं करना नहीं चाहता और आखिर करे ही क्यों. खेती से किसी का घर थोड़े चल पा रहा है.’’
युवाओं को खेती से जोड़ना बड़ी चुनौती
खेती से दूर हो रहे लोग
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज की पीढ़ी खेती करने से बच रही है. कृषि क्षेत्र में काम कर रहे अनेक विशेषज्ञों की माने तो आने वाले समय में खुद को खेती करने वाला कोई नहीं कहेगा. जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर के कुलपति डॉ. पीके बिसेन ने डाउन टू अर्थ पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में इसको लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा हैं कि हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि युवा खेती नहीं करना चाह रहे. यह एक संकट की स्थिति है. युवा गांव में नहीं रहना चाहते और अगर वे वहां रह रहे हैं तो खेती को हाथ नहीं लगाना चाहते. हमारे सामने ये चुनौती है कि किसानों की अगली पीढ़ी कैसे तैयार हो.’’
ऐसा क्यों हुआ कि युवा खेती की तरफ से विमुख हो गए इसको लेकर बाबूलाल दाहिया कहते हैं, ‘‘दरअसल खेती में लागत बढ़ती गई और आमदनी कम होती गई. वहीं बाकी उद्योग में काम करने वालों का मेहनताना लगातार बढ़ता गया. जो युवाओं को खेती से दूर होने का मुख्य कारण बना.’’
दाहिया एक उदाहरण द्वारा समझाते हैं कि 70 के दशक में सोना 200 रुपए तोला था यानि 12 ग्राम सोना 200 रुपए में मिल जाता था. उस समय जो तृतीय श्रेणी का कर्मचारी था उसका वेतन भी 200 रुपए था. आज सोना महंगा हुआ तो उसका वेतन भी लगभग एक तोले सोने के बराबर हो गया है. दूसरी तरफ उस समय हमारे बड़े भैया ने 2 क्विंटल चावल (तब का पांच मन) बेच कर एक तोले सोने की मुहर खरीद दी. और अगर आज मैं खरीदना चाहूं तो मुझे 20 क्विंटल चावल और 25 क्विंटल गेहूं बेचना होगा. किसान जो पैदा करता था उसकी कीमत लगातार घटती गई और बाकी क्षेत्रों में आमदनी लगातार बढ़ती गई.’’
युवाओं को खेती से दूर होने का एक और उदाहरण देते हुए वे बताते हैं, ‘‘मान लीजिए की एक किसान के दो बेटे हैं. दोनों को उसने पढ़ा दिया. इसमें से एक को कोई नौकरी मिल गई. अगर वो तृतीय क्षेणी का भी कर्मचारी है तो उसको लगभग चालीस-पच्चास हज़ार की महीने के वेतन मिल रहा होगा. वो कम मेहनत करके महीने के चालीस-पच्चास हजार रुपए पा रहा है. दूसरे बेटे को नौकरी नहीं मिली. वो दस एकड़ जमीन पर खेती करता है. तो सरकारी आंकड़ा है कि एक क्विंटल अनाज उगाने में एक हज़ार रुपए खर्च आएगा. तो सबसे पहले तो वो 10 एकड़ में सौ क्विंटल (अनुमानित) उत्पादन के लिए एक लाख रुपए खर्च करेगा. तमाम मेहनत के बाद इस अनाज को बेचने पर उसे डेढ़ लाख रुपए मिलेगा. तो एक तरफ उसका भाई हर महीने पच्चास हज़ार पाता है और दूसरा भाई पांच-छह महीने मेहनत के बाद पचास हज़ार या साठ हज़ार पाएगा. तो इससे क्या फायदा होगा.’’
गांव से लगातार पलायन कर रहा है किसान
नहीं हो पाएगी किसानों की आमदनी दोगुनी
बबूलाल दाहिया कहते हैं कि खेती का उत्पाद बेचकर किसान ठीक से अपना घर भी नहीं चला सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ सरकार लगातार दावा कर रही है की किसानों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है. मोदी सरकार ने साल 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुनी करने का लक्ष्य घोषित किया है.
क्या मोदी सरकार साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर पाएगी. इस सवाल के जवाब में काफी कड़े आवाज़ में बाबूलाल दाहिया कहते हैं, ‘‘सरकार के पिताजी आ जाए फिर भी किसानों की आमदनी दोगुनी नहीं हो सकती है. क्योंकि जितना उत्पादन बढ़ेगा, उतनी ही लागत बढ़ जाएगी और उत्पादन का मूल्य घटता जाएगा. ये तो अर्थशास्त्र का सिद्धांत है. इसमें कुछ होने वाला नहीं है. यहां मध्य प्रदेश की सरकार पिछले कई सालों से ‘कृषि कर्मण सम्मान’ पा रही है, लेकिन यहां कितने किसान आत्महत्या कर रहे हैं. तो मेरा मानना है कि सरकार उत्पादन तो बढ़वा सकती है, लेकिन किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी. अगर सरकार को किसानों की आमदनी बढ़ानी है तो एमएसपी को सीधे दूना करना होगा. तब लोग खेती पर ध्यान देंगे. अब तक जो लोग खेती कर रहे हैं वो नुकसान में ही कर रहे हैं.’’
सरकार की योजना का नहीं हो रहा फायदा
मोदी सरकार ने किसानों को आर्थिक सहायता देने के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की शुरुआत की है. इस योजना की तारीफ करते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेता थकते नहीं, लेकिन बाबूलाल दाहिया इसकी आलोचना करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘छह हज़ार रुपए से क्या होता है. किसान को सही मूल्य मिल जाए तो इसकी ज़रूरत ही नहीं होती. सरकार के छह हज़ार देने से युवा तो खेती की तरफ आकर्षित होने से रहे. ये निराश्रितों को मिलने वाले आर्थिक लाभ की तरह है.’’
सरकार देश के अलग-अलग जगहों पर कृषि यूनिवर्सिटी चला रही है. यहां हजारों की संख्या में छात्र पढ़ाई करते हैं लेकिन फिर भी खेती-किसानी में युवाओं की कमी साफ़ नजर आती है. तो ये युवा जाते कहां हैं? ये यहां से सीखकर उसका इस्तेमाल कहां करते हैं. इस पर दाहिया कहते हैं, ‘‘कृषि यूनिवर्सिटी में ज्यादातर बच्चे नौकरी के लिए पढ़ाई कर रहे हैं ना कि खेती करने के लिए. खेती में कोई नहीं आना चाहता. क्योंकि खेती लाभ का समान नहीं है.’’
युवा जब खेती में आ नहीं रहे तो खेती किसानी का भविष्य क्या होगा. इसको लेकर बाबूलाल कहते हैं, ‘‘भविष्य में खेती बहुराष्ट्रीय कंपनियां करेंगी, जो कि इनका मकसद भी है. लोगों की ज़मीन लेकर अपने हिसाब से खेती करेंगी. लेकिन तब भुखमरी बढ़ेगी. समाज में असंतुलन और बेरोजगारी बढ़ेगी.’’
दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान एक किसान
परम्परागत खेती की तरफ लौटना होगा
परम्परागत खेती की पैरोकारी और पारंपरिक बीजों के संरक्षण के लिए पद्मश्री से सम्मानित बाबूलाल दाहिया के पास देसी धान की 130 किस्मे हैं. देसी बीजों को एकत्रित करने के लिए देश के अलग-अलग राज्यों की यात्रा करते रहते हैं. लोगों को पारंपरिक खेती अपनाने के लिए कहते रहते हैं.
देश में पारंपरिक खेती को छोड़कर नई तकनीकी की खेती को बढ़ावा देने के पीछे बड़ी वजह उत्पादन बढ़ाना रहा है. क्या पारंपरिक खेती से उत्पादन में कमी नहीं आएगी. इस सवाल के जवाब में दाहिया कहते हैं, ‘‘देखिए कथित वैज्ञानिक खेती के बराबर पारंपरिक खेती में भले उत्पादन न हो लेकिन जो नई नई तकनीक से होने वाली खेती है. रसायनिक खाद का इस्तेमाल किसानों में बढ़ा है. उसमें उत्पादन तो बढ़ा लेकिन इससे खेत खराब होने लगे. खेत तो रसायनिक खाद का नशाखोर हो गया. खेत की मिटटी कमजोर हो गई. उससे जो पैदा हुआ वो भी जहरीला होता है. दूसरी बात आज की खेती में और पारंपरिक खेती में उत्पादन का अंतर बहुत ज्यादा नहीं होता है.’’
बाबूलाल आगे कहते हैं, ‘‘वहीं नई खेती के बाद हमारे पास खाने के लिए सिर्फ चावल और गेहूं है जिसका इस्तेमाल अलग-अलग रूप में करते हैं. मोटे अनाज का उत्पादन खत्म हो गया. जबकि मोटा अनाज स्वास्थ्य के लिए बेहतर होता है. अगर हमें खुद और अपनी पृथ्वी को स्वस्थ रखना है तो पारंपरिक खेती की तरफ लौटना ही होगा. रसायनिक खादों से दूरी बढ़ानी होगी.’’