हमारे पास मौजूद दस्तावेज़ बताते हैं कि मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर आरबीआई द्वारा दर्ज आपत्तियों को ख़ारिज किया था साथ ही तमाम बैंकों द्वारा इस योजना को धोखाधड़ी और मनी लॉन्ड्रिंग से बचाव संबंधी सुझावों को भी नज़रअंदाज किया था.
2017 का बजट पेश होने से सिर्फ चार दिन पहले, शनिवार के दिन एक वरिष्ठ टैक्स अधिकारी को वित्त मंत्री द्वारा संसद में पेश किए जाने वाले दस्तावेज में एक गड़बड़ी नज़र आई.
1 फरवरी, 2017 को तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने बजट भाषण में इलेक्टोरल बॉन्ड की घोषणा करने वाले थे. इलेक्टोरल बॉन्ड यानि एक विवादास्पद लेकिन कानूनी तौर पर स्वीकृत ऐसा औजार जिसके जरिए बड़े कारपोरेशन और अन्य कानूनी संस्थाएं अपनी पहचान उजागर किए बिना असीमित मात्रा में धन राजनीतिक दलों को मुहैया करवा सकते हैं.
लेकिन इसमें एक अड़चन थी. एक वरिष्ठ टैक्स अधिकारी ने 28 जनवरी, 2017 को वित्त मंत्रालय में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को एक आधिकारिक नोट लिखकर आगाह किया कि- “गुमनाम चंदे को कानूनी रूप से वैध बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम में संशोधन करना होगा.” उन्होंने इस प्रस्तावित संशोधन का ड्राफ्ट बना कर वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों के पास अनुमोदन के लिए भी भेज दिया.
उसी दिन दोपहर में 1:45 बजे, वित्त मंत्रालय के एक आधिकारी ने रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर रामा सुब्रमण्यम गांधी- जो कि उस वक्त रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ अधिकारी थे- को प्रस्तावित संशोधन पर “त्वरित टिप्पणी का आग्रह” करते हुए पांच लाइन का एक कामचलाऊ मेल भेज दिया.
आरबीआई ने सोमवार यानि 30 जनवरी, 2017 को अपना मुखर विरोध दर्ज कराते हुए इस मेल का जवाब दिया. आरबीआई ने कहा कि चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में संशोधन करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी. इससे मनी लॉन्ड्रिंग को प्रोत्साहन मिलेगा, भारतीय मुद्रा पर भरोसा टूटेगा और नतीजतन केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा.
आरबीआई के पास इलेक्टोरल बॉन्ड का विरोध करने के पर्याप्त कारण थे, और यह बात उसके द्वारा 30 जनवरी, 2017 को सरकार को दिए गए उसके जवाब में साफ़ तौर पर दिखती है:
आरबीआई के मुताबिक “इस कदम से कई गैर-संप्रभु इकाइयां धारक दस्तावेज (बेयरर इंस्ट्रूमेंट) जारी करने के लिए अधिकृत हो जाएंगी. इस तरह की कोई भी व्यवस्था एकमात्र आरबीआई द्वारा धारक दस्तावेज यानि नकद जारी करने के विचार के खिलाफ है. धारक दस्तावेज करेंसी का विकल्प बन सकते हैं, और यदि ये बड़ी मात्रा में जारी होने लगे तो आरबीआई द्वारा जारी किये करेंसी नोटों से भरोसा कम कर सकते हैं. आरबीआई की धारा 31 में किसी भी तरह का संशोधन केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांत को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है और इससे एक गलत परंपरा स्थापत होगी.”
आरबीआई ने लिखा, “इसके जरिए पारदर्शिता का अपेक्षित उद्देश्य भी हासिल नहीं होगा, क्योंकि संभव है कि इसका (बेयरर इंस्ट्रूमेंट) असली खरीददार कोई और हो और राजनीतिक पार्टी को वास्तविक योगदान देने वाला कोई तीसरा व्यक्ति हो. ये धारक बॉन्ड हैं और डिलीवरी के दौरान हस्तांतरित किये जा सकते हैं. इसलिए वास्तव में कौन राजनीतिक पार्टी में दान दे रहा है इसका पता नहीं लगेगा.”
“अगर इसका इरादा यह है कि इस बॉन्ड को खरीदने वाला व्यक्ति, संस्था या इकाई इसे किसी राजनीतिक पार्टी को दान में देगी, तो आज की व्यवस्था में एक सामान्य चेक, डिमांड ड्राफ्ट या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल भुगतान के जरिए इसे किया जा सकता है. इलेक्टोरल धारक बॉन्ड की न तो कोई खास जरूरत है और न ही इसका कोई विशेष लाभ, वो भी एक स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बिगाड़ कर.
आमतौर पर आरबीआई द्वारा इस तरह के कड़े विरोध के बाद उम्मीद थी कि कोई भी प्रशासनिक गतिविधि रुक जाएगी. जब भी सरकार किसी कानून में संशोधन करती है तो पहले उस प्रस्तावित संशोधन से प्रभावित होने वाले मंत्रालय, सरकारी विभागों से औपचारिक परामर्श करती है साथ ही उनसे भी जिनका उस विषय पर कोई विशिष्ट मत हो.
लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में सरकार के शीर्ष कर्ताधर्ताओं ने पहले से ही इसे लागू करने का मन बना रखा था.
जिस दिन आरबीआई ने वित्त मंत्रालय को चिट्ठी लिखी उसी दिन आनन-फानन में तत्कालीन राजस्व सचिव हंसमुख अधिया ने एक पैराग्राफ का संक्षिप्त जवाब भेज कर आरबीआई की सभी आपत्तियों को खारिज कर दिया.
वित्त सचिव तपन रे और वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे नोट में अधिया ने कहा, “मुझे लगता है कि आरबीआई दानदाता की पहचान को गुप्त रखने के उद्देश्य से लाए जा रहे प्रस्तावित प्री-पेड बेयरर इंस्ट्रूमेंट के तंत्र को ठीक से समझ नहीं पाया है, जबकि उसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि जो भी दान देगा वह उस व्यक्ति के टैक्स पेड पैसे से ही होगा.”
जाहिर है आरबीआई की चिंताओं पर कोई ठोस तर्क देने के बजाय, अधिया के नोट से यह पता चलता है कि सरकार आरबीआई की आपत्तियों को लेकर कभी भी गंभीर नहीं थी. बाद के पत्राचार में भी यह बात साबित हुई.
अधिया ने लिखा, “आरबीआई की सलाह काफी देर से आई है और वित्त विधेयक पहले ही छप चुका है. इसलिए हम अपने प्रस्ताव के साथ आगे बढ़ सकते हैं.”
वित्त सचिव तपन रे ने भी उसी दिन अधिया के विचार से अपनी सहमति जताई. इस तरह फाइल बिजली की गति से पास हो गई और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इस पर तुरंत हस्ताक्षर कर दिए.
दो दिन बाद यानि 1 फरवरी, 2017 को जेटली ने पारदर्शिता लाने और “राजनीतिक फंडिंग की प्रणाली को साफ़ सुथरा बनाने” के लिए चुनावी बॉन्ड बनाने और आरबीआई के अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव रखा. अगले महीने वित्त विधेयक 2017 के पारित होने साथ ही ये प्रस्ताव कानून बन गया.
आरबीआई अधिनियम में परोक्ष तौर पर अहानिकारक दिख रही यह छेड़छाड़ और संशोधन बेहद जल्दबाजी और कानूनी पारमर्श के अभाव में लिया गया. इस कदम ने भारत की राजनीति व्यवस्था में बड़े व्यावसायिक घरानों के प्रभाव को वैध कर दिया और भारतीय राजनीति में विदेशी पैसे के अबाध प्रवाह का द्वार खोल दिया.
इस व्यवस्था से पहले भारतीय कारपोरेशन को राजनीतिक चंदे का ब्यौरा अपने सालाना बहीखाते में दिखाना होता था. इसके अलावा वे तीन वर्षों में अपने औसत वार्षिक मुनाफे का 7.5 प्रतिशत ही दान कर सकते थे. विदेशी कंपनियां भारत के राजनीतिक दलों को चंदा नहीं दे सकती थीं.
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा किये गए इस संशोधन ने सबकुछ बदल दिया. अब भारतीय कंपनियां, जिनमें शेल कंपनियां भी शामिल हैं, जिनका कोई व्यवसाय नहीं है सिवाय राजनीतिक दलों को पैसा पहुंचाने के, कोई भी व्यक्ति या अन्य कानूनी रूप से वैध संस्था या ट्रस्ट गुप्त रूप से असीमित मात्रा में इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद सकते हैं और चुपचाप उन्हें अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दे सकता है. विदेशी कंपनियां भी अब इस व्यवस्था के जरिए भारत के राजनीतिक दलों को पैसा मुहैया करवा सकती हैं.
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट इस योजना की वैधता पर विचार कर रहा है, पारदर्शिता के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा (सेवानिवृत) को मिले दस्तावेजों से यह खुलासा होता है कि किस तरह से मोदी सरकार ने आरबीआई- जो कि भारतीय बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली का संरक्षक है- को गुमराह किया, नजरअंदाज और अस्वीकार किया. जल्दबाजी में लिए गए सरकार के फैसले ने न सिर्फ भारतीय बल्कि विदेशी कंपनियों को भी गुप्त रूप से राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने और इसके जरिये अपने काले धन को सफ़ेद करने का जरिया मुहैया करवाया.
सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर सिर्फ आरबीआई की शुरुआती आपत्तियों को ही ख़ारिज नहीं किया था. सरकार ने तमाम बैंकों द्वारा दिए गए उन सुझावों को भी नजरअंदाज कर दिया जो बैंको ने इस योजना को धोखाधड़ी से मुक्त रखने और साथ ही भारतीय मुद्रा की अस्थिरता संबंधी खतरों से आगाह करने के लिए दिया था.
हमारे विस्तृत सवालों पर वित्त मंत्रालय ने कुछ इस प्रकार जवाब दिया:
“ईमेल में जिन सवालों को उठाया गया है वो नीतिगत निर्णय हैं जिन्हें तत्कालीन अधिकारियों द्वारा लिया गया था. इस सन्दर्भ में, यह बताना जरूरी है कि सरकारी संस्थाएं सभी निर्णय अच्छी भावना और व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर लेती है. लिए गए निर्णयों की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा सकती है लिहाजा निर्णय लेने की प्रक्रिया में निहित सभी पहलुओं पर ध्यान देने के बाद ही कोई उपयुक्त स्पष्टीकरण दिया जा सकता है.”
“चूंकि, बजट डिवीज़न इस समय काफी व्यस्त है, क्योंकि बजट की तैयारियां तेजी पर हैं इसलिए इस समय इन मुद्दों पर तुरंत वांछित जवाब देना संभव नहीं होगा, लेकिन हमारा प्रयास रहेगा कि हम नियत समय में अपनी प्रतिक्रिया दे सकें.”
इलेक्टोरल बॉन्ड काम कैसे करेंगे, इस बात पर चर्चा शुरू ही तब हुई जब सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड को और राजनीतिक दलों को अपारदर्शी चंदे की सुविधा को लोकसभा में बहुमत के दम पर और संदेहास्पद रूप से राज्यसभा में पास कराते हुए इसको कानूनी रूप से वैध बना दिया.
इसके बाद वित्त मंत्रालय के दिग्गज इस योजना के भीतर मौजूद खामियों की खानापूर्ति में लग गए. इस स्तर पर आकर (यानि कानून संसद में पास हो जाने के बाद) सरकार ने अपने आतंरिक रिकॉर्ड में आरबीआई की आपत्तियों पर एक विस्तृत खंडन तैयार किया.
जब आरबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता का सवाल उठाया तो वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने जवाब दिया, “दानदाता की गोपनीयता को बनाए रखना इलेक्टोरल बॉन्ड योजना का मुख्य उद्देश्य है.” यह संसद में सरकार के दावे के बिल्कुल विपरीत बात थी.
आरबीआई की उस आपत्ति पर कि ये बॉन्ड केंद्रीय बैंकिंग व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांत को कमजोर करेंगे और एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी, पर वित्त मंत्रालय ने कोई ठोस आर्थिक तर्क देने की कोशिश तक नहीं की.
वित्त मंत्रालय ने सपाट लहजे में जवाब दिया, “संसद सर्वोच्च है और आरबीआई अधिनियम सहित शासन के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार रखती है.”
अरुण जेटली द्वारा संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड की घोषणा के चार महीने बाद जून 2017 को वित्त सचिव तपन रे और उनके कार्यालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड के कामकाज के तरीके को लिखित में दर्ज किया.
रे की सहमति से जारी नोट में लिखा गया, “बॉन्ड जारी करने वाले बैंक द्वारा इसे खरीदने और प्राप्त करने वाले की जानकारी पूरी तरह गुप्त रखी जाएगी और ये जानकारी आरटीआई के दायरे से बाहर रहेगी.”
इसमें यह भी कहा गया कि राजनीतिक दलों को इस बात की छूट मिलेगी कि वो इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने वालों के नाम और पते का रिकॉर्ड अपने पास रखें.
यह जेटली द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड पर संसद में दिए गए भाषण के सर्वथा विपरीत बात थी जो “इलेक्टोरल फंडिंग में पारदर्शिता” के शीर्षक के साथ शुरू हुआ था और जिसमें दावा किया गया था कि “यह सुधार राजनीतिक फंडिंग में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही लाएगा और भविष्य में काले धन को रोकेगा.”
रे का नोट जो कि सरकार के दावों से विरोधाभास पैदा करता है, कहता है, “हालांकि, खरीददार का रिकॉर्ड बैंकिंग चैनल में हमेशा उपलब्ध होता है और जब भी प्रवर्तन एजेंसियों को इनकी जरूरत हो तो वे उन्हें वहां से प्राप्त कर सकती हैं.”
इसका मतलब है कि सिर्फ सरकार को पता होगा कि ये इलेक्टोरल बॉन्ड किसने खरीदे हैं.
जब वित्त मंत्रालय ने तय कर दिया कि इलेक्टोरल बॉन्ड किस तरह से काम करेंगे तो 19 जुलाई, 2017 को जेटली के कहने पर वित्त मंत्रालय के अधिकारियों की, भारतीय चुनाव आयोग की और भारतीय रिज़र्व बैंक की एक बैठक बुलाई गई जिसमें “इलेक्टोरल बॉन्ड की संरचना को अंतिम रूप दिया जाना था.” इस बैठक में चुनाव आयोग ने तो हिस्सा लिया लेकिन आरबीआई ने हिस्सा नहीं लिया.
28 जुलाई, 2017 को आरबीआई के डिप्टी गवर्नर बीपी कानूनगो ने तत्कालीन वित्त सचिव एससी गर्ग, जिन्होंने तपन रे की भूमिका संभाली थी, से अलग से मुलाकात की. उसी दिन आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल, वित्त मंत्री अरुण जेटली से इलेक्टोरल बॉन्ड की संरचना पर चर्चा करने के लिए मिले.
अगस्त में जेटली और उर्जित पटेल के बीच एक और बैठक हुई, जिसमें आरबीआई ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिख कर योजना की कमियों के बारे में फिर से बताया.
“इन बॉन्ड में ऐसी निहित खामियां हैं जिनका दुरुपयोग करके अवांछनीय गतिविधियों को अंजाम दिया जा सकता है. आप यह भी देख सकते हैं कि हाल के दिनों में पूरी दुनिया में ऐसी कोई मिसाल नहीं है जहां ऐसे धारक बॉन्ड जारी किये गए हों,” आरबीआई के डिप्टी गवर्नर कानूनगो ने लिखा.
ये जानते हुए भी कि आरबीआई एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है, उसने इस योजना में धोखधड़ी और मनी लॉन्ड्रिंग की संभावना को कम करने के लिए एक अंतिम प्रयास किया.
आरबीआई ने अपने नोट में लिखा- “भारत ऐसे बॉन्ड को समय-समय पर जारी करने पर विचार कर सकता है.” उसने इन बॉन्ड का दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ सुझाव भी साझा किये- “ये बॉन्ड जारी होने के बाद सिर्फ 15 दिनों के लिए वैध हों, ये बॉन्ड सिर्फ वही लोग खरीद सकते हैं जिनके बैंक खातों की केवायसी पूरी हो और जिनके खाते सत्यापित हों, ये बॉन्ड साल में सिर्फ दो बार और बेहद कम अवधि के लिए जारी होने चाहिए और वो भी सिर्फ आरबीआई के मुंबई कार्यालय से.”
इसके अलावा आरबीआई ने यह सुझाव भी रखा कि हर वर्ष जारी होने वाले बॉन्ड की एक अधिकतम सीमा तय हो.
वित्त मंत्री को लिखे नोट में वित्त सचिव ने कहा, “आरबीआई ने अब इलेक्टोरल बियरर बॉन्ड की खूबियों की सराहना की है और मोटे तौर पर वह डीईए के प्रस्ताव के साथ है. हम आरबीआई के इलेक्टोरल बॉन्ड को 15 दिनों तक वैध रखने के सुझाव को मान सकते हैं.”
केंद्रीय बैंक द्वारा दिए गए अन्य अधिकांश सुझावों को अनदेखा कर दिया गया. बॉन्ड योजना को लागू कर दिया गया, जिससे कोई भी भारतीय नागरिक, कारपोरेट, ट्रस्ट और एनजीओ जैसी संस्थाएं एसबीआई की किसी शाखा से बॉन्ड खरीद कर उन्हें गुप्त रूप से राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकती हैं. अभी तक 6,000 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए हैं और राजनीतिक दलों द्वारा लिए जा चुके गए हैं.
एक ओर सरकार को आरबीआई के इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के विरोध में कोई दिलचस्पी नहीं थी वहीं वो अन्य जगहों से इस पर लगातार सलाह लेती हुई दिख रही थी. सूचना के अधिकार के तहत मिले दस्तावेज में हमें इलेक्टोरल बॉन्ड का एक शुरुआती कांसेप्ट नोट भी मिला है.
ये भारतीय नौकरशाही द्वारा तैयार किये गए अधिकांश मेमो के विपरीत है. इसमें कोई तारीख नहीं है, किसी के दस्तखत नहीं हैं और बिना किसी लेटरहेड के सिर्फ एक सादे कागज़ पर छपा हुआ है.
हमने इस नोट को एक सेवारत और एक सेवानिवृत आईएएस अधिकारी के साथ साझा किया. इनमें से एक अधिकारी वर्तमान में केंद्र सरकार के सचिव के पद पर कार्यरत हैं और दूसरे अधिकारी अपने पद से सेवानिवृत हुए हैं. दोनों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ये नोट उस विशेष भाषा को नहीं दर्शाता है जिसकी उम्मीद आमतौर पर एक सरकारी अधिकारी से की जाती है.
नोट कुछ इस प्रकार शुरू होता है, “इलेक्टोरल बॉन्ड का प्रबंधन कैसे हो? एक बियरर बॉन्ड वो होता है जिसमें किसी विशेष लाभार्थी का नाम नहीं होता है और उसका मालिकाना हक बॉन्ड धारक के पास होता है. ऐसा बॉन्ड लेन-देन के बाद कोई निशान नहीं छोड़ता है.”
नोट में यह भी बताया गया है कि दो प्रकार के इलेक्टोरल बॉन्ड सामानांतर चल सकते हैं.
यह 2,000 रुपये तक के बॉन्ड के लिए “फिजिकल बियरर बॉन्ड मॉडल” की सिफारिश करता है, हालांकि इसमें यह भी माना गया है कि इसमें मनी लॉन्ड्रिंग का जोखिम है. 2,000 रुपये से अधिक की राशि के लिए, ये कांसेप्ट नोट डिजिटल रूप से जारी किये गए बॉन्ड का सुझाव देता है, जिसे राष्ट्रीय भुगतान निगम द्वारा प्रबंधित किया गया हो. नोट में स्वीकार किया गया है कि इस मामले में भी मनी लॉन्ड्रिंग की आशंका है.
“इसको पढ़कर ऐसा लगता है यह सरकार के बाहर के किसी व्यक्ति ने लिखा और फिर इसे सरकार को एक कांसेप्ट नोट के रूप में दिया है,” सेवानिवृत अधिकारी ने नोट पढ़ने के बाद बताया. हम इस नोट की उत्पत्ति या इसको लिखने वाले को स्वतंत्र रूप से सत्यापित करने में असमर्थ रहे.
अंतत: सरकार ने इस रहस्यमय नोट को दरकिनार करते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के वर्तमान संस्करण को लागू कर दिया.
(इस रिपोर्ट के दूसरे हिस्से में आप पढ़ेंगे कि किस तरह से सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर चुनाव आयोग की तमाम आपत्तियों के छुपाते हुए संसद में झूठ बोला और क्या थी चुनाव आयोग की आपत्तियां )
(इस रिपोर्ट का अंग्रेजी संस्करण आप हफपोस्ट इंडिया की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं)