23 फरवरी की रात से ये जलजला शुरू हुआ. 24 से खबरें आने लगीं, 25 से मौतों की गिनती शुरू हुई और अब तक नहीं रुकी है.
आज आठवां दिन है. गूगल मैप पर शिव विहार का रास्ता ढूंढते हुए मैं घर से निकल पड़ी हूं. दिल्ली की सर्दियां जा ही चुकी हैं, लेकिन सुबह की हवा में अब भी थोड़ी ठंडक बाकी है. नोएडा एक्सप्रेस-वे से अक्षरधाम और वहां से पुश्ता रोड पकड़कर यमुना विहार तक छह लेन की चौड़ी सड़क है, जिस पर चार पहिए वाली सैकड़ों गाड़ियां दनदनाते हुए चली जा रही हैं. अजीम मेहराबों-मीनारों और चमकीले फ्लाइओवरों वाला ये शहर भारत की राजधानी दिल्ली है, जिसे महज 18 दिन पहले अमेरिका के यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव ने विकासशील देशों की लंबी लाइन में से उठाकर उसे विकसित देश का ताज पहना दिया है. याद है स्कूल में पढ़ा करते थे- डेवलप्ड और डेवलपिंग नेशन. दोनों में उतना ही फासला था, जितना कहीं जाने और पहुंच जाने में होता है, लंगड़ाने और दौड़ने में होता है.
मैं विकसित होने का नया-नया तमगा पाए इस देश की राजधानी के उत्तर-पूर्वी हिस्से में आ पहुंची हूं, जो पिछले दिनों जल उठा था. आगे भागीरथी विहार के नाला रोड वाली पुलिया तक पहुंचते-पहुंचते सांस लेने में दिक्कत होने लगती है. धुएं की महक अब भी हवा में है. इस इलाके के बीचोंबीच तकरीबन एक किलोमीटर लंबा नाला है, जिसके चारों ओर करावल नगर, मुस्तफाबाद, जाफराबाद, गोकुलपुरी, भागीरथी विहार, चमन पार्क, शिव विहार, चांदबाग और बृजपुरी इलाके हैं. नालों के दोनों ओर बसी छोटी, संकरी गलियों वाली इन बस्तियों को जोड़ने के लिए दसियों पुलिया हैं, जिनके किनारे जगह-जगह डंपिंग यार्ड हैं. कूड़े के ढेर पर चील-कौए मंडरा रहे हैं. चारों ओर बदहवासी का आलम है. करावल नगर की सड़क पर एक ट्रक में कुछ लोग दूध-बिस्किट बांटने के लिए आए हैं. औरतें, बच्चे, बूढ़े, मर्द सब उस ट्रक पर टूट पड़े हैं. सबको एक पैकेट दूध मिलेगा. नारंगी रंग का टेरीकॉट का सूट पहने एक 10 साल की लड़की दूध का पैकेट लेकर भीड़ में से निकल रही है. मैं उसका नाम पूछती हूं. वो मुझे दहशत से देखती है. जवाब नहीं देती. उसने दूध का पैकेट कसकर दोनों हाथों से पकड़ रखा है.
ऐसे ही कसकर पकड़ रखा था 35 बरस की मुमताज ने मेरा हाथ, जब वो मुझे शिव विहार में अपना घर दिखाने ले जा रही थीं. नाले वाली पुलिया के इस ओर चमन पार्क था और उस ओर शिव विहार. पुलिया पर पुलिस बैरिकेड लगे थे और नीली वर्दी में आरएएफ के जवान तैनात थे. इस पार लोगों ने हमें रोका, “उधर खतरा है.” एक अंग्रेजीदा पत्रकार ने नफीस अंग्रेजी में समझाया, “इट्स नॉट सेफ.” मुमताज ने कहा, “मैं आपको ले चलूंगी.” हम गली से निकले और पुलिया की तरफ बढ़ने लगे. जैसे जानमाज पर झुकी औरतें दुपट्टे में खुद को लपेट लेती हैं, मैंने अपनी शॉल को सीने पर वैसे ही लपेट लिया, मानो वो कोई बुलेट प्रूफ जैकेट हो. हम मदीना मस्जिद के पास शिव विहार की 14 नंबर गली की तरफ बढ़ने लगे. चमन पार्क की पुलिया के दोनों ओर जैसे दो अलग दुनिया थी. इस पार गलियों में इतनी भीड़ थी कि बिना टकराए एक कदम चलना मुश्किल था और पुलिया के उस पार ऐसा सन्नाटा, जैसे कब्रिस्तान. नीली वर्दी वाले जवानों के अलावा दूर-दूर तक इंसान का नामोनिशान नहीं. एक गली में कुछ दूर दो आदमी दिखे तो मुमताज के पैर ठिठक गए. उन्होंने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया. उनके दिल की तेज धड़कन मुझे अपनी हथेलियों में महसूस हो रही थी. बोलीं, “ये लोग मार डालेंगे.” मैंने कहा, “कुछ नहीं होगा. आप डरिए मत.” वो बोलीं, “आपको नहीं होगा. आप हिंदू हो.” मेरे पास कोई जवाब नहीं था.
हम मुश्किल से 100 कदम चले होंगे कि आंखों का मंजर बदल गया. यहां तक तो ये प्लास्टर झरी दीवारों वाली, सटे-सटे मुर्गी के दड़बों जैसे मामूली घरों वाली, जगह-जगह ठहरे पानी और जमी गंदगी वाली गली थी, लेकिन अब ये आग, धुंआ, पथराव, हिंसा और मौत वाली गली बन गई. जहां तक नजर जाती, सब काला दिखाई देता. गली के दोनों ओर जले हुए मकान थे. साइकिल, मोटरसाइकिल, ठेले जलकर राख हो चुके थे. सड़कों पर पत्थर, कांच, सरिए और लोहे के टुकड़े बिखरे पड़े थे. कुत्ते कोनों में डरे हुए दुबके बैठे थे. छोटी-छोटी दुकानें थीं, जिनके शटर खुले थे, जिन्हें लूट लिया गया था, जला दिया गया था. एक जला हुआ हेयर कटिंग सलून था, जहां अब सिर्फ अधजली कुर्सी पड़ी थी. एक जली हुई परचून की दुकान थी, जिसके टीन के कनस्टरों से अब भी तेल बह रहा था. शाइन स्टूडियो का एक चमकीला पोस्टर सही सलामत था. लिखा था, “हमारे यहां शादी, पार्टी, जन्मदिन, प्रीवेडिंग फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी की जाती है.” दुकान जलकर खाक हो चुकी थी. गलियों में बिलकुल सन्नाटा था. घरों की दीवारें काली पड़ी थीं, सामान राख हुआ पड़ा था. जो घर सही-सलामत थे, उनके ताले टूटे हुए थे, घर लूटे जा चुके थे. सब लोग घर छोड़कर जा चुके थे.
जिस रात ये कहर बरपा, जिसे जहां जगह मिली, जान बचाकर भागा. चमन पार्क के सलीम मुहम्मद बताते हैं कि आधी रात में शिव विहार से रोती-चीखती भीड़ पुलिया के इस पार जान बचाकर भागी. औरतों के पैरों में चप्पल नहीं थी, सिर पर दुपट्टा नहीं था. छोटे-छोटे बच्चे नंगे पांव भागे आ रहे थे. अपनी जिंदगी भर की कमाई, जमा पूंजी, अपना घर पीछे छोड़कर. जब पूरा शिव विहार आग की लपटों में घिरा था, लोगों ने सिर्फ अपनी जान बचाने की सोची.
उसी रात तकरीबन 3 बजे मुमताज भी नंगे पांव अपनी दो बेटियों और शौहर के साथ जान बचाकर भागीं. आज सात दिन बाद वो उस गली में वापस लौटी थीं. गली के मुहाने पर एक जली हुई कार और ठेला खड़ा था. हम राख, पत्थरों, सरियों और कांच के टुकड़ों के बीच से जगह बनाते पहली मंजिल पर बने उनके एक कमरे के उस घर में पहुंचे, जहां सामान के नाम पर सिर्फ लोहे के तीन ट्रंक, एक जला हुआ गैस का चूल्हा और कुछ बर्तन ही बचे थे, जिन पर कालिख की मोटी पर्त जम गई थी.
सिलाई मशीन का जला हुआ स्टैंड पड़ा था. इसी मशीन पर वो और उनके पति रैग्जीन के बैग सिलते थे. महीने के 10-12000 कमा लेते थे. उन्हीं पैसों में से मुमताज कुछ-कुछ बचाकर एक बैग में छिपाकर रखती थीं कि कभी गाढ़े वक्त में, बेटियों के ब्याह में काम आएगा. सब जल गया. मुमताज काफी देर तक अपनी खाक हो चुकी गृहस्थी को देखकर रोती हैं. बार-बार दुपट्टे के कोर से आंखें पोंछती हैं. 25 तारीख की रात से देह पर वही दुपट्टा पड़ा है, जो लपेटकर घर से भागी थीं. वो एक-एक कोने की ओर इशारा करतीं हैं, यहां मेरी आलमारी थी. अभी छह महीने पहले ही खरीदी थी. यहां बिस्तर था. 15 सालों में एक-एक पाई जोड़कर एक सेकेंड हैंड स्कूटी खरीदी थी. स्कूटी आने से माल लाने और बने हुए बैग पहुंचाने का काम आसान हो गया था. मुमताज नीचे झांककर देखती हैं. स्कूटी गायब है. पता नहीं, जल गई या कोई उठा ले गया. अचानक उन्हें याद आता है, मेरे हिसाब की कॉपी भी जल गई. कितने बैग सिले, कितने के पैसे मिले, उसका हिसाब आठवीं पास मुमताज रोज एक कॉपी में दर्ज कर लेती थीं. कॉपी जल गई. हिसाब नहीं तो पैसे भी नहीं. वो काफी देर चुप रहती हैं. रह-रहकर मानो कुछ याद आता है, फिर बड़बड़ाने लगती हैं. “मैडम जी, ये बड़े-बड़े शोले उठ रहे थे. सारे घर जल रहे थे. दूर से जयश्रीराम, जयश्रीराम की आवाजें आ रही थीं. हम तो बस जान बचाकर भागे.”
जिस घर को बनाने में पूरी उमर निकल गई, उसे राख होने में चंद घंटे भी नहीं लगे. एक सेकेंड हैंड स्कूटी खरीदने के लिए 15 साल पैसे जमा किए, फिर से जिंदगी शुरू करने में और कितने साल लगेंगे.
मुमताज अब लौटने के लिए बेचैन हो रही हैं. मैं शौहर को बिना बताए आपके साथ चली आई. वो एक आखिरी बार नजर भरकर अपने जले हुए घर को देखती हैं और फिर ऐसे नजरें फेर लेती हैं, जैसे कोई कब्र से उठकर घर को जाता है. लेकिन मुमताज तो घर को भी नहीं जा रही. घर ही कब्र हो गया. घर अब कहीं नहीं है.
हम चमन बाग के पीछे इंदिरा विहार की उस गली में लौट आए हैं, जहां सैकड़ों की संख्या में बेघर लोगों ने सलामत बच गए घरों में शरण ली है. फुरकान मलिक के घर कैफ मंजिल में बीसियों औरतें, बच्चे और मर्द जमा हैं. जिन कपड़ों में घर से निकले थे, आज तक वही पहने हुए हैं. कभी कोई एनजीओ वाला खाना बांटने आ जाता है तो कोई दवाई. बच्चे कोनों में सहमे बैठे हैं. औरतें एक-दूसरे को अपनी तबाही की कहानियां सुनाती हैं और गले लगकर रोती हैं.
24 साल की रेहाना भी दो साल की बेटी को लेकर 25 की रात शिव विहार से भागकर इंदिरा विहार अपनी अम्मी के घर आई. उसका घर जला नहीं था. निकलते हुए रेहाना ने सब दरवाजों पर ताला लगाया था. चार दिन गुजरे. दिन-रात तस्बीह हाथ में लिए कुरान शरीफ पर झुकी रेहाना ने खुदा का शुक्र मनाया कि उसका घर जलने से बच गया. लेकिन रविवार की रात जब उसके पति शाहनेआलम वहां पहुंचे तो देखा कि घर का ताला टूटा हुआ था. सारा सामान गायब था. गहने, कपड़े, नकदी, टीवी कुछ भी नहीं बचा था. रेहाना की मां रोने लगती हैं. “जिंदगी भर की जमा पूंजी लगाकर बेटी का ब्याह किया था. सब सामान दिया कि उसे किसी चीज की कमी न हो.” आज वो घर खाली पड़ा है. जो लूट सकते थे लूट लिया, जो नहीं लूटा, वो तबाह कर दिया. और ये सब हुआ दंगों के पांच दिन बाद, जब पूरी पुलिस और आरएएफ फोर्स ने शिव विहार को सील कर रखा है. लूटने वाले कोई और नहीं, वो हिंदू पड़ोसी हैं, जिनके बच्चों के साथ उनके बच्चे स्कूल जाते थे, जिनकी बेटियां पड़ोस के मुसलमान घर में ब्याह के आई नई दुल्हन को सुहागरात के लिए सजाती थीं, जिनके बेटे घर में किसी के मरने पर जनाजे को कंधा देते थे. जो हंसी-ठिठोली से लेकर दुख-तकलीफ में मदद के लिए एक-दूसरे का दरवाजा खटखटाते थे. वही थे, जिनके दिलों में इतना जहर घोला गया कि पड़ोसी का घर जलता देख उन्होंने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए. जिन्होंने जलने से बचे रह गए अपने पड़ोसियों के घर लूट लिए. दसवीं पास शाहनेआलम ग्रोफर्स में डिलिवरी का काम करते हैं. दस हजार रु. तंख्वाह है. दंगों की रात से काम पर नहीं जा पाए. अब तंख्वाह कटेगी.
भागीरथी विहार के मेन नाला रोड के किनारे कुल 19 घर जलकर राख हुए हैं. ये 24 तारीख की शाम का वाकया है. 25 साल की तंजीम फातिमा खाना बना रही थी. अचानक लगा, दूर कहीं शोर हो रहा है. उन्होंने खिड़की से झांककर देखा, तकरीबन 50-60 लोग हाथों में बड़े-बडे सरिए, बंदूक, लोहे की रॉड और बोतलों जैसा कुछ लिए लोनी की ओर से बढ़े आ रहे थे. शोर धीरे-धीरे नजदीक आता जा रहा था. तभी घर के शीशे पर एक पत्थर आकर लगा. फिर दनादन पत्थरों की बरसात होने लगी. चार गली दूर रहने वाले तंजीम के भाई अख्तर रजा उसे बचाने आए. तंजीम अपने 10 महीने के बेटे को लेकर नंगे पांव सीढ़ियों से भागी. उसके पेट में तीन महीने का बच्चा था. नीचे 30-40 लोगों ने घेर लिया. बस वो बच गई उस दिन. ये कहते हुए वो फफक पड़ती है. घर की बाकी औरतें चुप कराती हैं, “पेट के बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा. अब सब ठीक है.” 26 साल की गुलशन कहती हैं, “उस दिन भाई वक्त पर न आते तो ये वहीं जलकर मर जाती.” गुलशन के पांच साल के बेटे आहिल को आंख में चोट लगी है. वो खिड़की के पास खेल रहा था, जब अचानक पत्थर आया और खिड़की का कांच टूटकर बच्चे की आंख में चुभ गया. आहिल कहता है, “हिंदू आए थे हमें मारने के लिए.” गुलशन की 7 साल की बेटी रिमशा इतने सदमे में है कि रो भी नहीं पा रही. यहां कोई बच्चा रो नहीं रहा. वो आपकी ओर दहशत से देख रहा है.
तंजीम, गुलशन सब उस शाम किसी तरह जान बचाकर भागे और पीछे से उनके घर पहले लूटे और फिर जला दिए गए. जिनके पास कहीं जाने को नहीं था, उनकी लाशें अगले दिन सड़क पर पड़ी मिलीं. तंजीम और उनके पति जुल्फिकार के पड़ोसी का घर जलकर खाक हो चुका है. रहने वालों का अब तक कोई पता नहीं. इस गली में हर तीसरा घर जला हुआ है. लोग देखते हैं, सामने के नाले से रोज तीन लाशें निकलती हैं. कोई नाले में घुसकर लाशें ढूंढ नहीं रहा. जो फूलकर ऊपर आ जा रही हैं, वही निकाली जा रही हैं. पता नहीं कितनी और अभी अंदर पड़ी होंगी.
तंजीम की रिश्तेदार और पेशे से पत्रकार फरहा फातिमा की कॉलोनी नूर-ए-इलाही में 23 की रात से दहशत का माहौल था. घर के मर्द पूरी रात गली के सब छोरों पर पहरा दे रहे थे. औरतें पूरी-पूरी रात घरों में अकेली रहतीं. बाहर से शोर आता. वो डरकर रोने लगतीं. चीखती हुई भागकर झज्जों पर जातीं. गली के बाहर से जयश्रीराम की आवाजें आतीं. जवाब में गली में पहरा दे रहे मर्द नारा-ए-तकबीर कहते. गली में भगदड़ मचती. भागते हुए मर्दों से औरतें अपने-अपने मर्दों का नाम लेकर पूछतीं, “वो हैं न. वो ठीक तो हैं.” कोई जवाब न मिलने की सूरत में लौटकर कमरों में आतीं और फिर जानमाज पर झुक जातीं. पूरी रात दुआएं करतीं. 25 की रात जब फरहा के शौहर रहबर जाने लगे तो फरहा ने उनके बाजू पर बांधने के लिए इमाम जामिन बनाई, जिसका मतलब था कि अब तुम्हें खुदा के हवाले किया. अब वही तुम्हारी हिफाजत करेगा. उस दिन उसकी शादी की दूसरी सालगिरह थी. कहते हुए फरहा की आवाज रुंध जाती है. दो महीने के बच्चे को गोद में लिए वो चार रातों से सोई नहीं है.
सोई तो पिछली 7 रातों से इमराना भी नहीं है. 20 दिन पहले ही उसने एक बेटी को जन्म दिया था. शौहर ने बड़े प्यार से बिटिया का नाम रखा- इनाया फातिमा. बड़ी मुश्किल थी जचगी. जीटीबी अस्पताल के डॉक्टरों ने कहा था, बच्चे को बचाना मुश्किल है. बच्ची फौलाद की बनी थी. मौत से लड़कर जिंदा दुनिया में आई, लेकिन उसके जन्म के सिर्फ 20 दिन बाद 24 की सुबह जो उसके अब्बू और इमराना के शौहर मुदस्सर खान काम पर गए तो फिर कभी नहीं लौटे. दो दिन बाद उनकी लाश आई. सिर के पिछले हिस्से में गोली लगी थी. इमराना की जबान को जैसे लकवा मार गया है. उसका हाथ पकड़ लो, उसे गले लगा लो, लेकिन वो एक शब्द नहीं कहती. सिर्फ रोती है.
ऐसे कितने हैं यहां, जो घर से निकले तो जिंदा थे, लेकिन लौटे तो लाश बनकर. 22 साल की फरजाना का पति भी उस दिन काम पर जाने के लिए ही निकला था. उसकी तीन महीने की बच्ची पिछली पूरी रात रोती रही थी. सुबह जाते वक्त फरजाना ने सलीम को कागज का एक पर्चा दिया, जिस पर अंग्रेजी में दवाई का नाम लिखा था. चार दिन बीत गए. न दवा आई, न सलीम. चार दिन बाद भागीरथी विहार के नाले से उसकी लाश निकली.
अब तक 20 लाशें निकल चुकी हैं. एक मार्च को दोपहर दो बजे एक लाश मेरे सामने निकल रही थी. मैंने रिकॉर्ड करना चाहा तो पुलिस ने मना कर दिया. पुलिस ने तो उस वक्त आने से भी मना कर दिया था, जब लोग डरे हुए बदहवास 100 नंबर पर फोन लगाए जा रहे थे. अख्तर रजा ने 80 बार 100 नंबर पर फोन किया. उसी नाला रोड पर रहने वाली 24 साल की नूरिश कहती हैं, “100 नंबर पर फोन किया तो पुलिस ने कहा, अब ले लो आजादी. हम गिड़गिड़ाते रहे, लेकिन हमें बचाने कोई नहीं आया.”
65 साल की तबस्सुम बेगम ने दंगों की कहानियां पहले भी सुनी थीं. बचपन में दादा और अब्बू से सन् 47 के किस्से भी. कैसी आग लगी थी. अंग्रेजों ने दो मुल्क कर दिया था. मुसलमानों के लिए पाकिस्तान, लेकिन हम नहीं गए. हमारे कोई रिश्तेदार भी नहीं गए. गांधीजी को किसी ने गोली मार दी थी. उनके फूल आए थे. मेरे अब्बू ने देखा था. हम तो पैदा भी नहीं हुए थे. 14 की बरस में ब्याहकर तबस्सुम बिहार से दिल्ली आईं. पति मिस्त्री का काम करते थे. हिंदू पड़ोसी का घर बन रहा था तो मुसलमान पड़ोसी ने ही ईंटा-गारा जोड़ा था. 10 बरस पहले तबस्सुम का बेटा हैजे से मरा तो हिंदू पड़ोसी ही आधी रात अस्पताल लेकर भागे. हिन्दू बहू की जचगी घर में हो रही थी. बच्चा पेट में उलट गया तो जल्दी में तबस्सुम को ही तलब किया गया. बूढ़ी अम्मा ने जाने कितनी जचगियां कराई थीं. पेट देखकर बता देतीं कि लड़का होगा या लड़की.
ये हिंदू-मुसलमान, दंगा-फसाद अब तक उनके लिए दूर देस के अफसाने थे. जाने कब ये हुआ कि वो खुद उस अफसाने की किरदार बन गईं. उनका बेटा इस वक़्त अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है. पेट में सरिया घुसाया था उसके. किसने, वो नहीं जानतीं. जिंदगी की इस दहलीज पर आकर वो दूर देस की कहानी उनकी अपनी कहानी हो गई है. कहानियां तो इतनी हैं कि सुनाते हुए तबस्सुम की बाकी उम्र कट जाए. लेकिन वो एक रात में दस बरस बुढ़ा गई हैं. बोला नहीं जा रहा. मैं ज्यादा इसरार नहीं करती कि मुझे और बताओ.
फरवरी, 2020 में दिल्ली के इन दंगों में अपना घर, अपनी जिंदगी गंवाने वाले सारे लोग अचानक उस दूर देस के अफसानों का हिस्सा बन गए हैं. लोग धर्म पूछकर, जांचकर मार देते हैं. उन्होंने सुना था, सोचा नहीं था कि एक दिन खुद ऐसे मारे जाएंगे. जिंदगी पहले भी कोई फूलों की राह नहीं थी. गरीबी थी बहुत सारी, घर में हर साल पैदा होते और मरते हुए बच्चे थे. बीमारी थी, अस्पताल की लंबी लाइनें थीं, मालिक की फटकार थी. साल-दर-साल एक-एक पैसे जोड़कर जुटाई गई गृहस्थी थी. खिड़की के सामने गंदा नाला था, जहां चमकीली राजधानी की सारी गंदगी आकर जमा होती थी.अपना घर और जान गंवाने वाले ये सब ऐसे ही लोग हैं. कोई रिक्शा चलाता है, कोई मजदूरी करता है, कोई छोटी-छोटी फैक्ट्रियों में डेली वेज वर्कर है, कोई मोटरसाइकिल का पंचर बनाता है, कोई रेहड़ी लगाता है, कोई इलेक्ट्रिशियन है तो कोई प्लंबर, दर्जी, मिस्त्री, कारीगर. किसी के बैंक अकाउंट में इतने भी पैसे नहीं कि दो जोड़ी नए कपड़े ही ले आए. सात दिन से उन्हीं कपड़ों में हैं. यही हैं वो लोग, जिन्हें दंगों में निशाना बनाया गया है, जो हिंदुत्व के लिए खतरा हैं. इनके घर जलाकर, रोजगार छीनकर, इन्हें काटकर नाले में फेंककर विकसित देश का सर्टिफिकेट अपने सीने से चिपकाए हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र बनने का अपना सपना साकार करने वाला है.
बृजपुरी के मोड़ पर एक पतली सी गली में जुम्मन शेख एक टूटी हुई प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हैं. उनके चेहरे पर उम्र से ज्यादा झुर्रियां हैं. तस्बीह पर हाथ फेरते हुए उनकी उंगलियां कांप रही हैं. उनकी पथराई आंखों में नफरत नहीं है. दुख है और बेबसी. उनका 32 साल का बेटा दंगे में मारा गया. घर में इकलौता कमाने वाला था. पीछे अपनी बीवी और चार बेटियां छोड़ गया है. वो 20 साल के थे, जब बीवी कौसर जहां और बेटे को लेकर दिल्ली आए थे. आज 48 साल बाद मुरादाबाद के पास अपने गांव वापस जा रहे हैं. ये शहर उन्हें रास नहीं आया.
उनकी आंखें मानो जाते हुए कह रही हैं-
“हमारी चीख़ें अभी तलक सुन रही हैं गलियां
तुम इनसे गुज़रो तो गीत गाना कि यूं हुआ था
मु'आफ़ करके हमारे क़ातिल को ख़ूं हमारा
कल एक बेहतर जहां बनाना कि यूं हुआ था”
- इम्तियाज़ खान