नया हिंदुस्तान: जहां बोलना मना है

मोदी सरकार से असहमति रखने वालों को एक-एक कर निशाना बनाया जा रहा है. कुछ को जेल भेज दिया गया, कुछ को भेजने की तैयारी चल रही है.

WrittenBy:बसंत कुमार
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अगस्त 2020 की एक दोपहर. रात भर की बारिश के बाद दोपहर की गर्मी की बजाय हवा में उमस है. दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के गेट पर लगे जामुन के पेड़ के आसपास पके जामुन बिखरे हुए हैं. कोविड-19 के आगमन के बाद से बंद पड़े प्रेस क्लब में छह महीने बाद कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई. यह प्रेस कॉन्फ्रेंस उत्तर-पूर्वी दिल्ली में कारवां पत्रिका के तीन पत्रकारों पर हुए हमले का विरोध करने के लिए हुआ. कोविड को देखते हुए प्रेस क्लब ने 25 लोगों को इस प्रेसवार्ता के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन आए 20 से भी कम. इसमें से सात-आठ लोग तो कारवां से ही थे. बाकी वक्ता और तीन-चार पत्रकार. यह संख्या बताने के लिए काफी है कि बोलने-लिखने वालों के प्रति समाज में कितनी उदासीनता है.

इस प्रेसवार्ता में बोलने पहुंचीं दुनियाभर में अपनी लेखनी से यश कमाने वाली अरुंधति रॉय. रॉय ने यहां अपनी राय रखी, उसके बाद देश की हालात पर न्यूजलॉन्ड्री से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इस कमरे में जो लोग पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए आते थे. आज उसमें से आधे से ज्यादा जेल में हैं. ये लोग उस किसी भी आवाज़ को बर्दाश्त नहीं कर रहे जो मेनस्ट्रीम नैरेटिव के खिलाफ हो. उन्हें सबको कुचलना है. उन तमाम लोगों को चुप कराया जा रहा जो इनके खिलाफ बोलते थे या बोल सकते हैं. आज हमारे हाथों से हमारी सड़कें भी चली गई है.’’

प्रेस क्लब में आयोजित हुआ कार्यक्रम

इस प्रेसवार्ता में रॉय के साथ सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी थे. देर शाम ख़बर आई कि सुप्रीम कोर्ट ने एक ट्वीट के मामले में प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी पाया है. सज़ा उन्हें 20 अगस्त को दी जाएगी. बहुत मुमकिन इस कमरे में प्रेसवार्ता करने वाला एक और शख्स जेल चला जाए.

भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगा

भीमा कोरेगांव मामले की तरह ही दिल्ली में बीते फरवरी महीने में हुए दंगे में उन तमाम लोगों को निशाना बनाया जा रहा है जो लम्बे समय से आम जनता की आवाज़ बनकर बोल और लिख रहे हैं. एक जनवरी 2018 को हुए भीमा कोरोगांव विवाद में सुधा भारद्वाज और वरवर राव जैसे लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता लम्बे समय से जेल में हैं. बीमार होने के बावजूद उन्हें जमानत नहीं दी जा रही है. इधर दिल्ली दंगे में भी ऐसी ही कोशिश होती नजर आ रही है.

दिल्ली दंगे के मामले में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों को आरोपी बनाया जा रहा है. निशाने पर कई बुद्धिजीवी और एकेडमीशियन भी हैं. हाल ही में दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद को दिल्ली पुलिस ने पांच घंटे तक बैठाकर पूछताछ किया और आखिर में उनका फोन जब्त कर लिया. कुछ ही दिन बाद वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन के साथ भी इसी तरीके से दिल्ली पुलिस ने पूछताछ के बाद उनका मोबाइल फोन जब्त कर लिया.

जेएनयू के छात्रनेता रहे उमर खालिद से भी पुलिस इस मामले में पूछताछ कर रही है. उन्हें पुलिस इस दंगे का मास्टरमाइंड बता रही है. योगेन्द्र यादव का नाम भी इस मामले में आ चुका है. हालांकि उनसे अभी तक कोई पूछताछ नहीं हुई है.

दिल्ली दंगे में पुलिस जांच की हर गाड़ी सीएए प्रदर्शनस्थलों से होकर गुजर रही है. प्रदर्शनों के आयोजक, सक्रिय रूप शामिल रहे सामाजिक कार्यकर्ता आदि को दिल्ली पुलिस दंगे के साजिशकर्ता के रूप में पेश कर रही है. क्राइम ब्रांच की टीम अपने अलग-अलग चार्जशीट में इन तमाम लोगों को आरोपी ठहरा रही है. पुलिस चार्जशीट का लब्बोलुआब यह कि दंगा करने के लिए ही सीएए प्रोटेस्ट की शुरुआत हुई थी.

सीएए एनआरसी प्रोटेस्ट

दंगे के दौरान मारे गए लोगों के मामले में गिरफ्तार कई आरोपियों ने एक जैसा ही बयान दिया है.मैं सीएए प्रोटेस्ट में शामिल होता था. वहां लोग भाषण देने आते थे और बताते थे कि इससे मुसलमानों की नागरिकता छीन जाएगी. हम सरकार से नफरत करने लगे थे और दंगे किए. ये तमाम बयान आरोपियों के कबूलनामे में है. हत्या के मामले में जेल में रहने के बाद जमानत पर आए तीन आरोपियों से न्यूजलॉन्ड्री ने मुलाकात की थी. तीनों के कबूलनामे में यहीं दर्ज था.

जब हमने उनसे पुछा कि सीएए प्रदर्शन में जाते थे तो उन्होंने ना में सर हिलाया था. हालांकि यह कबूलनामा सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज है. यह कोर्ट में मान्य नहीं होगा, लेकिन मीडिया का एक बड़ा तबका इसे ही अंतिम सत्य मानकर खबरें चला रहा है और एक संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि दिल्ली दंगा सीएए विरोधी करने वालों की साजिश है.

सवाल उठता है कि भीमा कोरेगांव की तर्ज पर दिल्ली दंगे में लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों और प्रोफेसरों को दिल्ली पुलिस क्यों निशाना बना रही है. इसका जवाब अरुंधति रॉय के बयान में छिपा है जिसमें वो कहती हैं कि वर्तमान की सत्ता किसी भी तरह के विरोध की आवाज़, चाहे वो व्यक्तिगत हो या सामूहिक बर्दाश्त नहीं कर रही है.

बुद्धिजीवियों से इस सरकार को दिक्कत है..

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब से केंद्र में सरकार बनी तब से सेकुलर और बुद्धिजीवी जैसे शब्दों का मज़ाक बनाया गया है. ऐसा सिर्फ सामान्य नागरिकों द्वारा नहीं किया बल्कि कई बड़े नेताओं, मंत्रियों और सत्ताधारी दल से जुड़े विचारकों ने भी किया है. रंग बदलकर मैदान में आए कुछ पत्रकारों ने भी इस शब्द को गालीनुमा बनाने में भूमिका निभाई. लेकिन ऐसा सिर्फ 2014 के बाद हुआ ये नहीं कहा जा सकता है.

प्रोफेसर अपूर्वानंद बताते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय में भी बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया गया था. तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने तब कहा था, ‘‘सारे बुद्धिजीवी दरअसल इंटेलेक्चुअल टेरेरिस्ट है.''

अपूर्वानंद आगे कहते हैं, ‘‘मुरली मनोहर जोशी ने जो कहा उसी लॉजिक को आगे बढ़ाया जा रहा है. आप 2015 से संसद में दिए गए बयान या बाहर दिए गए बयान को सुन लीजिए जिसमें बार-बार यह कहा जा रहा है कि छात्रों का काम सिर्फ क्लास में पढ़ना और परीक्षा देना है. इससे अधिक उनको कुछ नहीं करना चाहिए. मास्टरों का भी काम है सिर्फ क्लास में पढ़ा देना. उनका काम खत्म. उससे अधिक अगर आप करते हैं तो आप दूसरी श्रेणी में चले जाते है. बुद्धिजीवी का काम सिर्फ विश्लेषण करना नहीं है, वो यह भी बताता है कि आगे क्या हो सकता है. वह आगे के बारे में बताता है. जैसे धूमिल ने कहा है कि अगर सड़क जिंदा नहीं रहेगी तो संसद समाप्त हो जाएगी. सड़क और संसद के बीच सीधे रिश्ता है. सड़क ही संसद को ऑक्सीजन देती है. अगर आप सड़कों को खामोश कर देंगे तो संसद निर्जीव हो जाएगी. जो बुद्धिजीवी सड़क से जरा सा जुड़ता है वो सत्ता के निगाह में खतरनाक हो जाता है.’’

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जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रहे पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ‘‘बुद्धिजीवियों को बीते छह-सात साल से परेशान तो किया ही जा रहा है. इसमें सबसे चिंता की बात यह है कि मीडिया में पुलिस अपने ढंग से चीजें लिखकर देती है और मीडिया का एक हिस्सा उसे अपने तरीके से दिखाता-बताता है. फिर देशद्रोही का टैग लगा दिया जाता है. साल 1962 के दिनों में नेहरूजी का काफी विरोध हुआ. कृष्ण मेनन को इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता की तब के कांग्रेसियों ने अपने विरोधियों को देशद्रोही कहा हो. जो आपसे सहमत नहीं वो देशद्रोही कैसे हो सकता है. इस सरकार को बुद्धिजीवियों से समस्या है.’’

एनएएलएसआर हैदराबाद की प्रोफेसर मनीषा सेठी बताती हैं, ‘‘वर्तमान सरकार को हर सोचने-समझने वाले से परेशानी है. क्योंकि उनकी बात वहीं मांगेगे जो अपनी बुद्धि को निकालकर सोचेंगे. इस सरकार से बड़ा बुद्धिजीवी विरोधी सरकार मुझे तो नहीं लगता की आज तक हिंदुस्तान में बनी है. इसका एजेंडा ही एंटी बुद्धिजीवी है.’’

अपूर्वानंद से पूछताछ

दिल्ली पुलिस ने प्रो अपूर्वानंद को दिल्ली दंगे की सबसे महत्वपूर्ण एफआईआर 59/2020 के संबंध में पूछताछ करने के लिए बुलाया था.

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘अगर पुलिस को पूरी परिस्थिति को समझना है तो वो अलग-अलग लोगों से ज़रूर बात कर सकती है, लेकिन अगर उन्हें लगता है कि मुझसे कोई ऐसी जानकारी मिल सकती है तो इस पर मुझे जरा आश्चर्य है. पुलिस को अधिकार है कि वो किसी को भी बुला सकते हैं और हर किसी को उनकी मदद करनी चाहिए. हिंसा तो हुई है और हिंसा के कारण का पता चलना चाहिए.’’

दिल्ली दंगो के बाद गोकुलपुरी नाले से लाश को बाहर निकाले जाने के बाद भीड़ लग गई.

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘मेरी समझ कहती है कि जो हिंसा हुई उससे पहले एक लम्बा घृणाप्रेरित अभियान चलाया गया था. यह दिल्ली विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान भी चलाया गया. जिसमें केंद्र सरकार के मंत्री और बीजेपी के नेता शामिल थे. उन्होंने हिंसक प्रचार किया. उनके खिलाफ जो नए नागरिकता कानून का विरोध कर रहे थे. एक हिंसा का माहौल पैदा किया गया. जिसका नतीजा हमने देखा कि शाहीनबाग़ और जामिया के प्रदर्शनस्थल पर कुछ युवा हथियार लेकर पहुंच गए. हिंसा का एक महीने तक उकसावा दिया गया और उसके बाद हिंसा हुई. इस उकसावे और फिर हुई हिंसा के बीच एक रिश्ता बिलकुल संभव है. उसकी जांच होनी चाहिए. वह जांच क्यों नहीं हो रही है? एक उलटी जांच हो रही है. वह यह है कि जो लोग विरोध प्रदर्शन में शामिल थे उनके विरोध प्रदर्शन ही हिंसा के स्रोत थे. यह बतलाया जा रहा है. एक तरह से पूरे मामले को सर के बल खड़ा किया जा रहा है.’’

सीएए विरोधी ही पुलिस की नजर में दोषी

जैसा की हमने बताया कि दिल्ली पुलिस दंगे की जांच जिस एंगल से अब तक कर रही है उसके अनुसार सीएए के खिलाफ हुआ प्रदर्शन ही इस दंगे के पीछे है. इसके लिए प्रदर्शनकारियों को पुलिस आरोपी बना ही रही साथ ही उनके पक्ष में लिखने और बोलने वालों पर नकेल कसने की कोशिश जारी है.

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘उन प्रदर्शनकारियों के समर्थन में जो लोग थे. आप उन्हें घेरे में लाकर शायद संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि ना तो विरोध करने दिया जाएगा और ना ही विरोधियों का कोई मित्र रहने दिया जाएगा. प्रदर्शनकारियों को भी एक मैसेज देने की कोशिश है कि आपका कोई मित्र नहीं है. क्योंकि जो भी आपके साथ खड़ा होना चाहेगा उसको भी आपके बराबर सज़ा मिलेगी. हम जैसे लोगों से पुलिस दरअसल कहना चाह रही है कि आपका समर्थन ही षड्यंत्र है.’’

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘मेरी इन मामलों में स्थिति बिलकुल स्पष्ट है. मैं अरसे से लिखता-बोलता रहा हूं. और मैं हमेशा इसका पक्षधर रहा हूं कि जनता को अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करने का अधिकार है. वह आंदोलन हमेशा ही अहिंसक होना चाहिए. लेकिन अगर आप (पुलिस) कहेंगे कि हम हिंसा के स्रोत है. हम हिंसा भड़का रहे है. जैसा की हमारे बारे में प्रचार किया गया. ऐसा कर दरअसल आप लोगों में विश्वास खत्म कर रहे हैं. इसके साथ ही आप एक और संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि हम किसी का लिहाज नहीं करते है. किसी को भी कीचड़ में घसीट सकते हैं. हम किसी पर भी कीचड़ उछाल सकते हैं और हमारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा. यह तो बहुत अजीब सी बात है.’’

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मनीषा सेठी कहती हैं, ‘‘भीमा कोरेगांव का मामला हो या दिल्ली दंगे का मामला हो. दोनों में पीड़ितों को ही आरोपी बना दिया गया. भीमा कोरोगांव में हिंसा दलितों के साथ हुई. वो मामला पीछे छूट गया. उससे इतर एक बड़ा षड्यंत्र खड़ा कर दिया गया. जिसमें कहा गया की प्रधानमंत्री को मारने की तैयारी हो रही थी. जबकि पुणे पुलिस सुप्रीम कोर्ट में यह बात मान गई की उन्हें ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है. दिल्ली दंगे में ऐसा ही देखने को मिला. जिसके साथ हिंसा हुई उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया गया. और उनके साथ में जो बोलने वाले हैं उनको भी आरोपी बना दीजिए.’’

ऐसा करके सरकार आखिर क्या संदेश देना चाह रही है. इस सवाल पर मनीष सेठी कहती हैं, ‘‘सरकार का साफ़ संदेश है कि चुप रहिए, डरकर रहिए. बोलिए मत.’’

'पुलिस की थ्योरी से मुझे परेशानी हुई'

अपूर्वानंद बताते हैं कि पूछताछ के दौरान पुलिस का व्यवहार काफी शालीनता वाला था. उन्होंने मुझसे ठीक तरह से बात की. उन्होंने मेरा फोन ले लिया. लेकिन मुझे दिक्कत पुलिस की जांच थ्योरी से हुई.

अपूर्वानंद पुलिस की थ्योरी का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘‘वह थ्योरी यह है कि हिंसा का स्रोत और उसका प्रमुख कारण यह विरोध प्रदर्शन था. और औरतों ने जो सड़क बंद किया वह था. यह थ्योरी काफी परेशान करने वाली है. मेरा यह मानना है कि सड़क बंद होने से आपको परेशानी हो सकती है, लेकिन उसे खाली कराने के सारे साधन सरकार के पास मौजूद हैं. यह काम जनता के दूसरे हिस्से को नहीं दिया जा सकता है. तो जिन लोगों ने बंद रोड को चालू कराने के नाम पर हिंसा की. पुलिस ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश की इसका कोई प्रमाण नहीं है. बल्कि पुलिस ने यह कहा कि आपने सड़क बंद करके लोगों को नाराज़ कर दिया जिससे वे हिंसा पर उतारू होने पर मजबूर हो गए. यह बहुत अजीब सी थ्योरी है. जिस तरह से हिंसा की शुरुआत हुई उसे ना तो रोका गया और ना ही उसकी जांच हो रही है.’’

नौजवानों के बड़े हिस्से में ख़ुशी

समाज का एक बड़ा तबका बुद्धिजीवियों पर होने वाली कार्रवाई पर जश्न मनाता नजर आ रहा है. इस तबके के मन में बुद्धिजीवियों के प्रति नफरत देखी जाती है. इस पर अपूर्वानंद कहते हैं, ‘‘यह सत्ता और इस तरह की राजनीति का लक्षण होता है. वो एक ऐसी जनता तैयार करे जो खून की प्यासी हो.’’

अपूर्वानंद आगे कहते हैं, ‘‘इस तरह की जनता को खून या नशा चाहिए. आप कह सकते हैं कि उसे खून का नशा चाहिए. आप उसे नशा देते रहेंगे तो वह नशे में रहेगी और वह अपनी नागरिकता का कर्तव्य भूल जाएगी. यह नशा क्या हो सकता है. एक नशा तो है जिसमें आप उसको यह सुख प्रदान करे जहां वो किसी को भी अपमानित महसूस करा सके. इससे बड़ा नशा कोई होता नहीं. दूसरी बात तर्क करने के लिए पढ़ने की ज़रूरत पड़ती है, मेहनत की ज़रूरत पड़ती है. तो जब भी आप किसी विषय को भारी बनाते है. सोचने पर मजबूर करते है तो आप इनके दुश्मन बन जाते हैं.’’

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अपूर्वानंद आगे कहते हैं, ‘‘यह जो तबका सोशल मीडिया पर जश्न मानता दिख रहा है वो इसलिए जश्न मना रहा है क्योंकि इसमें उन्हें आसानी है. वे लोग सोचे बगैर ये लोग दावा कर सकते है कि उनके पास विचार है. जबकि वे विचारशून्य हैं.’’

पुरुषोत्तम अग्रवाल इस स्थिति के लिए मीडिया को दोषी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘इसके लिए मीडिया जिम्मेदार है. जिस समाज का मीडिया बुद्धिजीवियों को गद्दार की तरह पेश करे, और सरकार के विरोधियों को देशद्रोही की तरह पेश करे तो समाज के लिए बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. समाज को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.”

मनीषा सेठी कहती हैं, ‘‘हमारे समाज के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह बहुत शांत है. यहां गंगा-जमुनी तहजीब है. हम बहुत ही सहनशील समाज है. यह यह मिथ है जो गढ़े गए थे. यह उस समय के लिए ठीक था जब राज्य कम से कम ऐसे मसले पर कुछ बोलता था. लेकिन अभी जो सरकार है उसने इन सब चीजों को उलट दिया है. हमारा समाज हमेशा से हिंसक था, लेकिन जिन नफरतों को लोगों ने दबाकर रखी थी वो सब कुरेद-कुरेदकर ऊपर आ चुका है.’’

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