अपराध रिपोर्टिंग के नाम पर सूत्रों पर आधारित अपुष्ट, सनसनीखेज और गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग, पुलिस/जांच-एजेंसियों के प्लांट, चरित्र हत्या, मीडिया ट्रायल के बाद न्यूज चैनलों ने अब सुपारी लेकर निशाना बनाना शुरू कर दिया है.
कोई पांच-छह साल पहले जैक जिलेन्हाल की एक फिल्म आई थी- ‘नाईटक्राव्लर’. हॉलीवुड की यह क्राइम थ्रिलर फिल्म, वास्तव में, एक ब्लैक कॉमेडी है. इस फिल्म का मुख्य पात्र एक साइकोपैथ है जिसका पहले से छोटा-मोटा आपराधिक इतिहास भी है. संयोगवश वह टीवी पत्रकारिता खासकर क्राइम रिपोर्टिंग के जलवे को देखकर उसकी ओर आकर्षित होता है और जल्दी ही समझ लेता है कि टीवी चैनलों में आपराधिक घटनाओं की सबसे पहले- ब्रेकिंग न्यूज, ‘एक्सक्लूसिव विजुअल्स’ और बाईट को लेकर मारामारी और गलाकाट होड़ है.
इसका फ़ायदा उठाकर वह खुद कैमरा लेकर क्राइम रिपोर्टिंग में कूद पड़ता है और एक्सक्लूसिव विजुअल्स और बाईट के लिए कुछ भी करने को तैयार टीवी न्यूज चैनलों को ऐसे पहले एक्सक्लूसिव विजुअल्स/बाईट मुंहमांगी कीमत पर बेचने लगता है. टीवी चैनल और उसके प्रोड्यूसर-संपादक विजुअल्स/बाईट के लिए उसकी शर्तों और मोलभाव के आगे झुकने लगते हैं. इससे इस साइकोपैथ वीडियो “जर्नलिस्ट” के मुंह जैसे खून का स्वाद लग जाता है और धीरे-धीरे इस प्रक्रिया का तार्किक अंत एक्सक्लूसिव के लिए खुद अपराध करने और उसके वीडियो बनाकर बेचने में होता है.
अपराध पत्रकारिता या क्राइम रिपोर्टिंग की फिसलन और चरम पतन की यह कहानी आपको फ़िल्मी या हकीकत से दूर लग सकती है. लेकिन वास्तविक दुनिया में यह हकीकत से इतनी दूर भी नहीं है. याद कीजिए, कोई एक दशक पहले वैश्विक मीडिया के बादशाह रुपर्ट मर्डाक के ब्रिटिश टैब्लायड अखबार- ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ और टेलीफोन हैकिंग स्कैंडल की जिसमें इस अखबार के कई पत्रकार, संपादक, सी.ई.ओ और उनके द्वारा हायर किए गए प्राइवेट जासूस नामी-गिरामी (सेलेब्रिटीज) लोगों का फोन हैक करके निजी “रसीली और रति-सुख” देनेवाली हलकी-फुलकी गासिप, क्राइम स्टोरीज और टैब्लायड टाइप ‘ख़बरें’ छापा करते थे.
लेकिन अखबार यही नहीं रुका. उसने एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार की तेरह साल की स्कूली छात्र मिली डावलर जिसका अपहरण कर लिया गया था और पुलिस जांच कर रही थी, उसका टेलीफोन हैक कर लिया. अखबार के रिपोर्टर उसपर आ रहे मैसेज पढ़ते रहे जिससे पुलिस न सिर्फ कन्फ्यूज हुई बल्कि जांच प्रभावित हुई और आख़िरकार मिली डावलर की हत्या हो गई.
टैब्लायड पत्रकारिता की गलीज और गलाकाट होड़ अखबार को खुद टेलीफोन हैकिंग के अपराध तक ले गई. उसके बाद जो हंगामा मचा उसके कारण मर्डाक को न सिर्फ 168 साल पुराने और सर्कुलेशन में दूसरे नंबर के अखबार को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा बल्कि टेलीफोन हैकिंग के आरोप में संपादक, सी.ई.ओ आदि जेल गए. खुद मर्डाक को संसद में जलील होना पड़ा और ब्रिटिश प्रेस के कामकाज और तौर-तरीकों की जांच के लिए जस्टिस लेवेसन आयोग का गठन हुआ.
इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘नाईटक्राव्लर’ एक गल्प आधारित फिल्म होते हुए भी सच्चाई के बहुत करीब है. भारत में भी न्यूज चैनलों की “टैब्लायड” पत्रकारिता खासकर अपराध (क्राइम) रिपोर्टिंग उसी दिशा में बढ़ रही है. अगर आपको विश्वास नहीं हो रहा है तो इन दिनों फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या या संदिग्ध मौत और उसकी जांच के इर्द-गिर्द हो रही न्यूज चैनलों की 24x7 रिपोर्टिंग और प्राइम टाइम बहसें देख लीजिए.
अधिकांश न्यूज चैनलों ने पत्रकारिता के लगभग सारे एथिक्स और मूल्य बहुत पहले ही किनारे कर दिए थे, लेकिन अब उनकी रिपोर्टिंग खुद अपराध की सीमा छूने और कुछ मामलों में उसे पार भी करने लगी है. पिछले कई सप्ताहों से कई न्यूज चैनलों खासकर रिपब्लिक, टाइम्स नाऊ, आज तक आदि इस मामले में क्राइम रिपोर्टिंग के कई जाने-पहचाने अतिरेकों जैसे सनसनी, गासिप, अपुष्ट सूचनाएं, पुलिस और जांच एजेंसियों के प्लांट, चरित्र हत्या, मीडिया ट्रायल आदि से भी आगे निकल गए हैं.
कई न्यूज चैनल इस मामले में जैसे सुपारी लेकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं. वे टारगेट तय करके उसे सामाजिक-चारित्रिक तौर पर ध्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं. इस मामले में तथ्यों और साक्ष्यों की जगह कांस्पीरेसी थ्योरी ने ले ली है. पत्रकारिता का अनुशासन बेमानी हो गया है और जांच एजेंसियों की सेलेक्टिव और अपुष्ट लीक को आधार बनाकर हमला बोला जा रहा है. उदाहरण के लिए, इस “सुपारी पत्रकारिता” के निशाने पर अभिनेता सुशांत की प्रेमिका और अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार के सदस्य हैं.
रिया के खिलाफ एक ऐसा मीडिया ट्रायल चल रहा है जिसमें भद्दे, सेक्सिस्ट, महिला विरोधी, अपमानजनक कैप्शन, हैशटैग, आक्रामक और उन्मादपूर्ण धमकियों से लेकर कार का पीछा करना, घर में घुसने की कोशिश करना और जबरदस्ती मुंह में माइक घुसाकर उलटे-सीधे, आक्रामक और अपमानजनक सवाल करना सब कुछ जायज हो गया है. न्यूज चैनल के रिपोर्टरों की भीड़ उन्हें घर से निकलते और कहीं आते-जाते ऐसे घेर रहे हैं, पीछा कर रहे हैं और यहां तक की जबरदस्ती उस हाऊसिंग काम्प्लेक्स और उनके घर में घुसने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि रिया चक्रवर्ती के खिलाफ जांच एजेंसियों ने अभी तक कोई चार्जशीट दायर नहीं की है. यही नहीं, जांच एजेंसियां अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर पाई हैं कि अभिनेता सुशांत सिंह की हत्या हुई या उन्होंने आत्महत्या की और अगर आत्महत्या की तो क्या उन्हें आत्महत्या के लिए किसी ने मजबूर किया या उकसाया? लेकिन सुपारी पत्रकारिता में जुटे कई न्यूज चैनल इसे न सिर्फ हत्या मानकर चल रहे हैं बल्कि इस साजिश में शामिल आरोपियों की पहचान कर चुके हैं, साजिश की परतें खोलने का दावा कर रहे हैं और कथित आरोपियों के खिलाफ कंगारू कोर्ट में मुक़दमा भी चला रहे हैं.
इस सुपारी पत्रकारिता में आरोप बहुत हैं- हत्या, साजिश, हवाला, करोड़ों रूपये हड़पने, बॉलीवुड का परिवारवाद, बाहरी कलाकारों के साथ भेदभाव, दुबई कनेक्शन और बॉलीवुड में ड्रग्स आदि लेकिन तथ्य और साक्ष्य बहुत कम. सब कुछ अनुमानों, आरोपों, सेलेक्टिव लीक और अपुष्ट सूचनाओं के आधार पर चलाया जा रहा है. जांच एजेंसियों की मदद से चुनिंदा निजी चैट को सार्वजनिक किया जा रहा है. निजता के अधिकार की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.
सच यह है कि अभिनेत्री रिया और उनके परिवार की निजता में घुसपैठ से लेकर चरित्र हत्या और मीडिया ट्रायल को कई चैनलों और उनके स्टार एंकरों-संपादकों ने एक तरह के ‘बदले के खेल’ और ‘ब्लड स्पोर्ट’ में बदल दिया है. कई रिपोर्टरों और एंकरों का लंपट व्यवहार और उनके तौर-तरीके सामाजिक शालीनता और मर्यादा की हदें पार कर रहे हैं. उनकी भाषा, लहजे और व्यवहार में लंपटता, छिछोरापन और गाली-गलौज गली के गुंडे को मात दे रही है.
यह सही है कि अपराध खासकर हाई प्रोफाइल-हाई सोसायटी-बॉलीवुड से जुड़ी अपराध की खबरों में समाचार मीडिया की जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी नई बात नहीं है. कई बार ऐसी खबरों के प्रति उसकी अति सक्रियता से ऐसा लगता है कि जैसे लार टपकाते हुए वे इसी खबर का इंतज़ार कर रहे थे. ऐसी किसी खबर की टोह मिलते ही वह किसी भूखे कुत्ते की तरह उसपर टूट पड़ते हैं.
फिर कथित ‘एक्सक्लूसिव’ और ज्यादा से ज्यादा सनसनीखेज जानकारियों की खोज में और 24x7 न्यूज चैनल को लगातार फीड करते रहने के दबाव में उनमें कच्ची-पक्की, आधी-अधूरी, अपुष्ट, पुलिस/जांच एजेंसियों और संबंधित पक्षों की ओर से प्लांटेड और यहां तक की अफवाहों, तोड़ी-मरोड़ी और काल्पनिक सूचनाओं के प्रसारण और प्रकाशन की होड़ में नीचे गिरने की एक प्रतियोगिता सी शुरू हो जाती है. पत्रकारिता की जगह मनोहर कहानियां ले लेती है.
जाहिर है कि इस अति-उत्साह और जल्दबाजी में और कई बार जानते-बूझते हुए भी वे ऐसी गलतियां-गड़बड़ियां करते हैं जो खुद किसी अपराध से कम नहीं हैं.
निश्चय ही, सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध आत्महत्या की अतिरेक और उन्मादपूर्ण रिपोर्टिंग और उसमें पत्रकारीय एथिक्स, मूल्य और सुरुचि (गुड टेस्ट) की धज्जियां उड़ाने का यह मामला पहला नहीं है. पिछले डेढ़ दशक में न्यूज चैनलों खासकर उनकी अपराध रिपोर्टिंग ने खुद के गिरने के नए रिकार्ड बनाए हैं. दिल्ली से सटे नोएडा के बहुचर्चित आरुषि-हेमराज हत्याकांड और न्यूज चैनलों पर उसकी रिपोर्टिंग को कौन भूल सकता है. उस मामले को भी अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों ने ऐसे ही 24X7 अंदाज़ में कई सप्ताहों-महीनों तक छापा और दिखाया था.
हालांकि इस होड़ में समाचार मीडिया-अखबारों और न्यूज चैनलों ने जिस तरह से पत्रकारीय उसूलों और नैतिकता को ताक पर रखते हुए आरुषि-हेमराज और आरुषि के पिता डा. राजेश तलवार, उनकी पत्नी नुपुर तलवार और यहां तक कि उनके दोस्तों के बारे में भी ऐसी-ऐसी अफवाहों, अपुष्ट, काल्पनिक और आधी-अधूरी खबरें दिखाई-छापीं कि जांच में गड़बड़झाले, आपराधिक लापरवाही और असंयमित बयानबाजी के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ-साथ मीडिया के गैर जिम्मेदार और लगभग लम्पट व्यवहार की भी खूब थू-थू हुई थी.
स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आरुषि मामले में कोई ढाई महीने बाद जुलाई, 2008 में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करके मीडिया में ऐसी गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग और खबरों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगाने का आदेश देना पड़ा था जिससे आरुषि-हेमराज और उनके परिवारजनों की चरित्र हत्या होती हो या जांच अनुचित रूप से प्रभावित होती हो. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश सामान्य घटना नहीं थी. यह एक तरह से प्रेस की आज़ादी में हस्तक्षेप था.
लेकिन उस फैसले के खिलाफ कहीं कोई खास आवाज़ नहीं उठी तो उसकी वजह खुद समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल थे. सुप्रीम कोर्ट को आरुषि मामले में यह फैसला चैनलों और अख़बारों के अतिरेकपूर्ण, असंयमित, अशालीन, अश्लील और अपमानजनक रिपोर्टिंग के कारण करना पड़ा था जो मानहानि के दायरे में आने के साथ-साथ निजता के अधिकार के खुले उल्लंघन और मीडिया ट्रायल का बहुत ही फूहड़ उदाहरण था.
कहने की जरूरत नहीं है कि आरुषि-हेमराज हत्याकांड में मीडिया कवरेज को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश न सिर्फ एक सामयिक चेतावनी थी बल्कि आत्मालोचना का भी एक बेहतरीन मौका था. इसे एक सबक की तरह लिया जा सकता था. निश्चय ही, मीडिया के एक हिस्से में कुछ आत्ममंथन हुआ. कुछ चैनलों और संपादकों ने गलती भी मानी. न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन ( एन.बी.ए ) ने ऐसे मामलों की कवरेज में बरती जानेवाली सावधानियों की एक गाइडलाइन भी जारी की. लेकिन लगता है कि मीडिया एक बड़े हिस्से ने इससे कोई खास सबक नहीं लिया.
हैरानी की बात नहीं है कि दो साल बाद समाचार मीडिया के बड़े हिस्से ने एक बार फिर वैसी ही अनुमानों-अफवाहों पर आधारित छिछली, परिवादात्मक और चरित्र हत्या करनेवाली रिपोर्टें छापनी और दिखानी शुरू कर दीं. इसमें कई बड़े अखबार और न्यूज चैनल शामिल थे. उनकी रिपोर्टिंग उतनी ही गैर-जिम्मेदार थी, जितनी यह दो साल पहले थी. कुछ मामलों में तो वह पिछली बार से भी आगे निकल गई- उतनी ही असंयमित और आपत्तिजनक.
आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को जुलाई के दूसरे सप्ताह में एक बार फिर हस्तक्षेप करते हुए टी.वी समाचार चैनलों और अख़बारों को न सिर्फ खबरें दिखाने-छापने में पर्याप्त सतर्कता बरतने की सलाह देनी पड़ी बल्कि ऐसी खबरों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगाना पड़ा जिनसे जांच प्रभावित होती हो या जिनसे पीड़ित, आरोपी या इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति के सम्मान को चोट पहुंचती हो.
असल में, असली हत्यारों तक पहुंचने और ठोस सुबूत जुटाने में नाकाम रही जांच एजेंसियों ने अपनी नाकामी छुपाने के लिए न्यूज मीडिया को चुनिन्दा तौर पर अपुष्ट और आधी-अधूरी ‘सूचनाएं’ लीक करना शुरू कर दिया था जिन्हें ऐसी ‘खबरों’ के लिए हमेशा लार टपकाते चैनलों/अख़बारों ने ‘रसभरी, सनसनीखेज और उत्तेजक’ बनाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखा. इस पूरे मामले में आख़िरकार क्या हुआ, यह किसी से छुपा नहीं है.
लेकिन आरुषि-हेमराज हत्याकांड में मुख्यधारा के न्यूज मीडिया खासकर कुछ अखबारों और न्यूज चैनलों की गैर जिम्मेदार, असंयमित, मानहानिपूर्ण और अनैतिक अपराध रिपोर्टिंग कोई अपवाद नहीं थी. इस बीच, अनेकों मामलों में अख़बारों और न्यूज चैनलों की अपराध रिपोर्टिंग वही गलतियां और मनमानियां दोहराती रही है.
याद कीजिए, वर्ष 2017 में गुरुग्राम के रियान इंटरनेशनल स्कूल में छात्र प्रद्युमन ठाकुर की हत्या का मामला जिसमें स्थानीय पुलिस के साथ-साथ राष्ट्रीय न्यूज मीडिया ने भी पुलिस जांच पर बिना किसी सवाल और जांच-पड़ताल के स्कूल बस के खलासी को हत्यारा घोषित कर दिया था. पुलिस प्लांट और गल्प को तथ्य की तरह पेश किया. यह बात और है कि सीबीआई ने अपनी जांच में उसे निर्दोष पाया.
इसी तरह कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मौत के मामले में भी कई न्यूज चैनलों ने थरूर की चरित्र हत्या से लेकर उन्हें हत्यारा साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी. एक चैनल ने तो जैसे सुपारी लेकर थरूर के खिलाफ अभियान चलाया. लेकिन कई सालों की जांच के बाद दिल्ली पुलिस आख़िरकार थरूर के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा दर्ज कर पाई. ऐसा लगता है कि इस मामले में मीडिया ट्रायल ने न सिर्फ पब्लिक परसेप्शन को बल्कि दिल्ली पुलिस की जांच को भी प्रभावित किया.
फिल्म अभिनेता सुशांत की मौत के मामले में न्यूज चैनलों की अपराध या क्राइम रिपोर्टिंग एक बार फिर न सिर्फ वही गलतियां और मनमानियां कर रही है बल्कि इस बार पीत और टैब्लायड पत्रकारिता के छिछलेपन, उच्छृंखलता और गलीज के साथ-साथ न्यूज चैनलों का एक हिस्सा लंपट और सुपारी पत्रकारिता के निचले स्तर पर उतर आया है. सुपारी लेकर बदले की भावना के साथ मीडिया ट्रायल चल रहा है, चरित्र हत्या हो रही है, खलनायकीकरण जारी है और ऐसा लगता है कि सुशांत को न्याय के नामपर लोगों को लिंचिंग के लिए उकसाया जा रहा है.
( आनंद प्रधान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के प्रोफेसर हैं.)