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न्यूज़ीलैंड में आतंकी हमला: नव-नाज़ीवाद का फैलता ग्रहण
शुक्रवार को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में दो मस्जिदों में हुए हमले में 49 लोग मारे गए हैं. वहां की प्रधानमंत्री जसिंडा आर्डर्न ने इसे एक ‘आतंकी हमला’ बताया है. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने आरोपी हत्यारे को ‘अतिवादी दक्षिणपंथी हिंसक आतंकवादी’ क़रार दिया है. हिरासत में लिए गए आरोपियों में एक ऑस्ट्रेलियाई है. इसने हमले से पहले सोशल मीडिया पर किए गए पोस्ट में ख़ुद को नॉर्वे के आतंकवादी हमलावर आंदेर्स ब्रिविक से प्रेरित बताया है, जिसने 2011 में 77 लोगों की गोली मारकर हत्या की थी.
ब्रिविक की ही तरह इसने भी एक ‘मैनिफ़ेस्टो’ जारी किया है. इसके द्वारा लगाए गए तस्वीरों में जो हथियार हैं, उनपर मुस्लिम-विरोधी और नव-नाज़ीवादी नारे लिखे हुए हैं. इस घटना ने दुनियाभर में धुर-दक्षिणपंथ के असर और उसके ख़तरे की ओर फिर से ध्यान खींचा है. इस धुर-दक्षिणपंथ को ‘पॉपुलिज़्म’, ‘फ़ार-राइट’, ‘अंध-राष्ट्रवाद’, ‘राष्ट्रवादी अतिवाद’, ‘अल्ट्रा-नैटिविस्ट’ आदि संज्ञाओं से भी चिन्हित किया जाता है. इसे ‘नियो-फ़ासिज़्म’ और ‘नियो-नाज़ीज़्म’ भी कहा जाता है.
यदि हम न्यूज़ीलैंड का इतिहास और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य देखें, तो भले ही वहां ऐसी नकारात्मक और ख़तरनाक वैचारिकी सत्ता या संसद में सीधे तौर पर मौजूद नहीं रही है, पर हमेशा ही ऐसे तत्व, हाशिए पर ही सही, पर सक्रिय रहे हैं. बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ‘द न्यूज़ीलैंड लीजन’ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1950 के दशक में ‘सोशल क्रेडिट पार्टी’, 1960 के दशक में ‘लीग ऑफ़ राइट्स’ और ‘नेशनल सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ न्यूज़ीलैंड’, फिर ‘नेशनल सोशलिस्ट व्हाइट पीपुल्स पार्टी’, ‘न्यूज़ीलैंड नेशनल फ़्रंट’, अस्सी-नब्बे के कालखंड में ‘न्यू फ़ोर्स’, ‘नेशनल वर्कर्स पार्टी’, ’कंज़रवेटिव फ़्रंट’, ‘डेमोक्रेटिक नेशनल पार्टी’, ‘यूनिट 88’, न्यूज़ीलैंड फ़ासिस्ट यूनियन’, ‘राइटविंग रेज़िस्टेंस’ आदि पार्टियों और संगठनों की नाज़ीवाद और फ़ासीवाद से वैचारिक और व्यावहारिक निकटता रही है.
दो साल पहले ऑकलैंड विश्वविद्यालय में ‘यूरोपियन स्टूडेंट्स यूनियन’ बनाने की कोशिश हुई थी, जिसे ‘क्रिप्टोफ़ासिज़्म’ का उदाहरण कहा गया था. ‘क्रिप्टोफ़ासिज़्म’ और ‘क्रिप्टोनाज़ीज़्म’ का मतलब होता है, ऐसी वैचारिकी जो चोरी-छुपे फ़ासीवाद और नाज़ीवाद की प्रशंसक या अनुयायी हो. लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार में घटक दल के रूप में शामिल ‘न्यूज़ीलैंड फर्स्ट’ पार्टी भी ख़ुद को राष्ट्रवादी और पॉपुलिस्ट के रूप में चिन्हित करती है. इस पार्टी की मुख्य विचारधारा आप्रवासन नीतियों को कठोर बनाने और क़ानून-व्यवस्था को मज़बूत बनाने पर आधारित है. पिछले महीने ‘एनज़ेड सॉवरेनिटी’ नामक संगठन के बैनर तले संयुक्त राष्ट्र के प्रवासन समझौते का विरोध किया गया था. इस संस्था से जुड़े लोग दूसरे देशों से आनेवाले लोगों, विशेष रूप से शरणार्थियों, पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं.
यूरोप और अमेरिका में कुछ धुर-दक्षिणपंथी वेबसाइटों ने संयुक्त राष्ट्र के इस समझौते का विरोध करते हुए लिखा था कि यह छह करोड़ ‘ब्राउन’ लोगों को यूरोप में बसाने का योजना है. यह भी उल्लेखनीय है कि यूरोप, अमेरिका और कनाडा में सक्रिय अतिवादी अक्सर न्यूज़ीलैंड में भाषण देने जाते रहे हैं. न्यूज़ीलैंड की मुख्य विपक्षी पार्टी ‘नेशनल पार्टी’ भी कई बार आप्रवासन के मुद्दे पर धुर-दक्षिणपंथी समूहों की भाषा में बोल जाती है.
इस विवरण से स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर धुर-दक्षिणपंथ का ग्रहण गंभीर होता जा रहा है तथा यह ख़तरा अमेरिका से लेकर यूरोप तथा न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया तक पसर चुका है. अमेरिका और यूरोप की तरह न्यूज़ीलैंड में इस ख़तरे के बहुत कम असर का एक बड़ा कारण यह है कि न्यूज़ीलैंड उन कुछ गिने-चुने देशों में हैं, जहां आज भी परंपरागत मीडिया पर लोगों का भरोसा है. वर्ष 2017 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, आठ में से सात लोग अख़बारों और रेडियो पर विश्वास करते हैं. सिर्फ़ 38 फ़ीसदी लोग ही समाचार स्रोत के रूप में फ़ेसबुक आदि पर भरोसा करते हैं.
न्यूज़ीलैंड में अमेरिका का उदाहरण बहुत काम आ रहा है. जिस तरह से डोनल्ड ट्रंप और अतिवादी दक्षिणपंथ ने एक वैकल्पिक मीडिया परिवेश बनाया तथा मुख्यधारा की मीडिया को अपने प्रचार के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में कामयाबी पाई, इससे न्यूज़ीलैंड की मीडिया आगाह है. धुर-दक्षिणपंथ का सामना करने के लिए जो उपाय अमेरिका और यूरोप के मीडिया ने अपनाया है, उस बारे में न्यूज़ीलैंड में भी चर्चा है.
आप्रवासन और शरणार्थी समस्या हमारे समय की बड़ी चुनौतियों में से है. नव-उदारवादी नीतियों की असफलता ने एक ओर दुनिया में युद्ध, गृह युद्ध, पर्यावरण संकट, ग़रीबी आदि का विस्तार किया है, तो विकसित देशों में भी रोज़गार घटने और जीवन-स्तर नीचे आने की मुश्किलें पैदा की हैं. ऐसे में धुर-दक्षिणपंथी समूह अंध-राष्ट्रवाद और नस्ली और धार्मिक भेदभाव भड़काकर लोकतांत्रिक मूल्यों को चोट पहुंचा रहे हैं. ऐसे में आप्रवासन और शरणार्थी समस्या को उन्हें अपने पक्ष में भुनाना आसान रहा है.
यूरोप में यह राजनीति 1990 के दशक से ही ज़ोर-शोर से की जा रही है, जो अब वैश्विक ग्रहण का रूप ले चुकी है. वर्ष 2015 में आप्रवासन क़रीब 25 करोड़ के आंकड़े तक पहुंच गया था. इसमें से 6.50 करोड़ के आसपास मजबूरी में विस्थापित हुए लोग थे. इस संकट का सामना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक वैश्विक समझौता तैयार किया है ताकि इस मानवीय संकट का समाधान निकाला जा सके. बीते दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से इस पर मुहर लगा दी है. इसे मानने वाले देशों पर कोई ऐसी मज़बूरी नहीं लादी गई है कि उन्हें आप्रवासियों और शरणार्थियों को अपने यहां जगह देनी ही होगी. लेकिन, धुर-दक्षिणपंथी इसे ‘ब्राउन’ लोगों को बसाने का षड्यंत्र बताने लगे हैं.
यूरोप, अमेरिका, न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में- हर जगह- यह भी देखा गया है कि भले ही धुर-दक्षिणपंथी संसद में या सरकार में जीतकर नहीं आ सके, पर पिछले दो-ढाई दशकों से मुख्यधारा की उदारवादी, दक्षिणपंथी, सोशल डेमोक्रेटिक और विभिन्न गठबंधनों ने उनके एजेंडे के दबाव में तथा उनके समर्थकों के वोट लेने के चक्कर में अपने एजेंडे में अतिवादियों की मांगों को समायोजित करने की कोशिश की है. यह धुर-दक्षिणपंथ की बड़ी वैचारिक जीत है.
दूसरी समस्या यह रही है कि इन देशों में अपने घरेलू दक्षिणपंथी आतंकियों को साधारण अपराधी या हत्यारा मानने की प्रवृत्ति रही है. उन्हें नाममात्र के कुछ सनकी तत्व मानकर काम नज़रअंदाज किया जाता रहा है. लोकतांत्रिक सरकारों और पार्टियों ने धुर-दक्षिणपंथ के ख़िलाफ़ राजनीतिक अभियान भी अनमने ढंग से चलाया है. आज तो इस वैचारिकी की कई सरकारें हैं. कई संसदों में इनके प्रतिनिधि बैठते हैं. मीडिया के तमाम रूपों में इनकी ठोस उपस्थिति है. धुर दक्षिणपंथ की चुनौती का सामना करने के लिए लोकतांत्रिक देशों की पार्टियों, बुद्धिजीवियों और नागरिकों को नए सिरे से आत्ममंथन कर संघर्ष में उतरना होगा. बात सिर्फ़ चुनावी हार या जीत तक सीमित नहीं है. यह जितना न्यूज़ीलैंड, यूरोप और अमेरिका के लिए ज़रूरी है, उतना ही भारत और ब्राज़ील के लिए भी.
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