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‘आज तो फैक्ट ही कहना मुश्किल है, इन्वेस्टिगेशन कौन करे’

भारत में साल 2000 से 2018 के बीच अलग-अलग राज्यों में 65 पत्रकारों की हत्या हुई. जिसमें से तीन महिलाएं रहीं. सबसे ज्यादा 12 पत्रकारों की जानें उत्तर प्रदेश में गईं

जिन पत्रकारों की हत्या हुई उनके ऊपर एक किताब 3 अक्टूबर को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में जारी हुआ. किताब का नाम है ‘सालेंसिंग जर्नलिस्ट्स इन इंडिया’. यह किताब अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए मारे गए पत्रकारों की पूरी जानकारी देती है. किताब में बारह राज्यों के उन 31 पत्रकारों की भी जानकारी दी गई है जिन पर उनके लेखन की वजह से मुकदमों में फसाया गया है.

किताब के लॉन्च के मौके पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट अनंत बागाईतकर ने कहा, ‘‘आज मीडिया को तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है. सरकार की व्यवस्था की खामियों को लिखने के कारण पत्रकारों पर मामला दर्ज हो रहा है. धारा 370 खत्म किए जाने के बाद कश्मीर में मीडिया को काम नहीं करने दिया जा रहा है. हम एक लोकतान्त्रिक देश में रहते हैं. सूचनाओं का आदान-प्रदान इंसान के लिए ऑक्सीजन और पानी की ज़रूरी है. कश्मीर में मीडिया को काम करने की आज़ादी दी जानी चाहिए.’’

किताब में दिए गए आंकड़ों के अनुसार साल 2000 से 2018 तक देश में 65 पत्रकारों की हत्या की गई. इस दौरान देश में बीजेपी नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) दोनों की सरकारें रही हैं. अगर अलग-अलग करके देखें तो अटल बिहारी वाजेपयी सरकार के दौरान 2000 से 2004 तक 15 पत्रकारों की हत्या हुई. 2004 से 2014 तक जब देश में कांग्रेस की सरकार रही. इस दौरान देश में 28 पत्रकारों की हत्या हुई. केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए. जिसके बाद मीडिया पर तमाम तरह की पाबंदियां लगाने की चर्चा की गई. इस दौरान 22 पत्रकारों की हत्या हुई. यानी अगर एनडीए और यूपीए सरकारों के दौरान हुई हत्याओं को देखें तो एनडीए के नौ साल के शासन में 37 पत्रकारों की हत्या हुई तो यूपीए के दस सालों में 28 पत्रकारों की हत्या हुई. यानी दोनों सरकारों के दौरान पत्रकारों की हुई हत्याओं में कोई बड़ा अंतर नहीं है.

पत्रकारों पर हमले को लेकर लगातार मोदी सरकार की आलोचना हो रही है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि दोनों ही सरकारों में पत्रकारों की स्थिति दयनीय है. इस सवाल के जवाब में अनंत बागाईतकर कहते हैं, ‘‘सरकार कोई भी हो उसकी हमेशा कोशिश मीडिया को अपनी मुठ्ठी में रखने की होती है. कोई भी सरकार हो उसकी कोशिश होती है कि पत्रकार उनके पक्ष में लिखें. लेकिन मीडिया का  फर्ज सरकार की खामियों और व्यवस्था की खामियां को उजागर करना है. उसे लोगों के सामने लाना है. हमारा काम सरकार की प्रशंसा करना नहीं है. अगर समाज और व्यवस्था की कुरूतियों को सामने लाने के कारण ही पत्रकारों पर मामले दर्ज हो, उन्हें मारा जाए, उन पर देशद्रोह का मामला दर्ज हो तो क्या ही कहा जाए.’’

इस पर वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन कहते हैं, ‘‘पत्रकारों का काम हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है. कभी भी किसी भी सरकार द्वारा आलोचना करने वाले पत्रकारों का स्वागत नहीं किया गया. यूपीए सरकार के दौरान मैं टीवी चैनल में काम करता था. मेरे पास भी सरकार से बहुत सारे नोटिस आते थे. लेकिन अब चुनौती दोहरी है. एक तो सरकार की तरफ से चुनौती है. मुकदमें करना, पुलिस का इस्तेमाल करना वगैर और दूसरा सोशल मीडिया में ट्रोलिंग करके पत्रकारों पर व्यक्तिगत हमले हो रहे हैं. उनके साथ गाली गलौज करना, धमकियां देना. ये जो नया ट्रेंड आया है इसने चुनौती को दोगुना-तिगुना कर दिया है.”

इस किताब को ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के साथ मिलकर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, इंडिया वीमेन प्रेस कॉर्प, बृह्मुंबई जर्नलिस्ट्स यूनियन, मुंबई प्रेस क्लब और मीडिया स्टडीज ग्रुप ने छपवाया है.

किताब में मारे गए पत्रकारों के बारे में संग्रह के दौरान उनकी हत्या के कारणों में क्या किसी तरह की समानता दिखी? इस सवाल के जवाब में मीडिया स्टडीज ग्रुप के संयोजक अनिल चमड़िया कहते हैं, ‘‘ज्यादातर पत्रकारों की हत्या सत्ता गठजोड़ के खिलाफ खबरें करने के कारण की गई. जो सत्ता का गठजोड़ है उसके किसी भी घटक के खिलाफ आप रिपोर्ट करेंगे, उसके खिलाफ सवाल करेंगे तो आप पर अटैक होगा. आपके खिलाफ कार्रवाई करने में तमाम घटक एक हो जाएंगे. आपको परेशान करेंगे. पत्रकारों के खिलाफ पहले से ही इस तरह की घटनाएं होती रही है, लेकिन नरेंद्र मोदी शासन में इसमें कई गुना ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. जो कि चिंताजनक स्थिति है.’’

अनिल चमड़िया किताब के लॉन्च के मौके पर कहते हैं, ‘‘आज पत्रकारों का काम करना मुश्किल हो गया है. आज सबसे ज्यादा मुश्किल फैक्ट कहना ही हो गया है. पत्रकारिता के दो घटक साक्षात्कार और इन्वेस्टिगेशन तो लगभग खत्म होने के कगार पर हैं. लेकिन जिस वक़्त में फैक्ट कहना ही मुश्किल हो उस वक़्त सबसे ज़रूरी पत्रकारिता को बचाना है.’’

सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंसाल्विस ने कहा, ‘‘राजद्रोह कानून का इस्तेमाल निर्भीक पत्रकारिता को दबाने के लिये लिये हो रहा है. कॉलिन गोंसाल्विस ने मौजूदा समय में पत्रकारिता के सामने आए खतरे से निबटने के लिये ‘कमेटी फॉर डिफ़ेंसे ऑफ जर्नलिस्ट्स’ बनाने का प्रस्ताव रखा जिसके तहत वकील, सिविल सोसाइटी और पत्रकार संगठन मिलजुल कर काम करेंगे.’’

लड़ाई के लिए पत्रकारों में एकता ज़रूरी

किताब लॉन्च के दौरान मौजूद सभी वक्ताओं ने वर्तमान में मीडिया पर बनाए जा रहे दबाव से लड़ने के लिए मीडिया में एकता की ज़रूरत की तरफ ध्यान दिलाया. उन्होंने पत्रकारों के बीच कम हो रही एकजुटता को लेकर चिंता जाहिर की.

आज जब पत्रकार खुलकर एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हैं. सरकार के साथ चल रहे मीडिया संस्थाओं के लिए ‘गोदी मीडिया’ शब्द का उपयोग किया जा रहा है तब सरकार से सवाल करने वालों को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग या अफजल प्रेमी गैंग’ कहा जा रहा है. हमारे बीच के ही कुछ पत्रकार इन शब्दों का प्रयोग अपने प्राइम टाइम कार्यक्रम के दौरान कर रहे हैं. ऐसे में पत्रकारों के बीच एकता होना मुमकिन है क्या? जवाब में अनिल चमड़िया कहते हैं, ‘‘जो भी लोग गोदी मीडिया या टुकड़े टुकड़े गैंग शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं वे दरअसल मीडिया हाउस के प्रतिनधि होकर बोल रहे हैं. एक पत्रकार के रूप में वे ऐसा नहीं कर रहे हैं.’’

इसको लेकर अनंत बागाईतकर कहते हैं, ‘‘समाज की तरह ही मीडिया में विचारों का अंतर हमेशा रहता है. समाज एक जैसा नहीं होता है और होना भी नहीं चाहिए. लेकिन बतौर पत्रकार हमारा काम फैक्ट रखना है और अगर किसी व्यवस्था में फैक्ट रखना ही अपराध माना जाएगा तो मुझे लगता है कि यह एक गंभीर स्थिति है. और इसके खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए हमें एक होना पड़ेगा. जब देश में आपातकाल लगा, देश में बोलने की आज़ादी पर प्रतिबंध लगाया गया तब उसके बाद देश में अलग-अलग विचारधारा के लोग एक अम्ब्रेला के नीचे आए. उसमें जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी समेत कई अलग-अलग विचारधारा के लोग थे. क्योंकि उस वक़्त इस देश की सबसे बड़ी चिंता संविधान को बचाना था. ठीक वैसे ही आज जब प्रेस की आज़ादी पर आघात हो रहा है तब सबको एक अम्ब्रेला के नीचे आना पड़ेगा ताकि काम करने की आज़ादी बची रहे.’’

ग्रामीण पत्रकारों की सुध नहीं

दिल्ली में एक पत्रकार पर जब हमला होता है तो उसके पक्ष रैली की जाती है लेकिन झारखंड के जेल में बंद एक पत्रकार रुपेश कुमार सिंह या उत्तर प्रदेश में कई पत्रकारों पर जब लगातार एफआईआर दर्ज हुई तब दिल्ली और खासकर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया द्वारा किसी प्रोटेस्ट का आयोजन नहीं किया गया. पत्रकारों संगठनों की भी अपनी सीमाएं इस दौर में उजागर हुई हैं.

अनंत बगाईतकर कहते हैं, ‘‘इस बात से सहमति है कि हम ग्रामीण और छोटे शहरों के पत्रकारों के पक्ष में हमेशा खड़े नहीं हो पाते हैं. लेकिन ऐसा जानबूझकर नहीं करते हैं. हम तक जानकारी देरी से पहुंचती है. हम उस मामले की जांच करते हैं कि कहीं पत्रकार से कोई गलती तो नहीं हुई. उसके बाद हम उसके पक्ष में खड़े होते है. तब तक देरी हो जाती है, ग्रामीण और क्षेत्रीय पत्रकारों के पक्ष में हम खड़ा हो सकें इसके लिए हम एक पोर्टल ईजाद करने के बारे में सोच रहे हैं. देश के किसी भी हिस्से में पत्रकारों पर हमले हो तो वे अपनी जानकारी उस पोर्टल पर शेयर कर सकेंगे और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया उस पर जल्द से जल्द एक्शन ले पाएगा.’’

किताब में जारी आंकड़े भारत में मीडिया की आज़ादी की बदहाली की तरफ इशारा करते हैं. भारत में पत्रकारिता करना मुश्किल है इसकी तस्दीक हाल ही में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा जारी ‘वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स’ से जाहिर होता है. दुनिया के 180 देशों में भारत मीडिया की आज़ादी के मामले में 140वें स्थान पर है.