अगर एक टीके की कीमत एक हजार रूपए है और एक परिवार में बच्चे, जवान, बूढ़े मिलाकर 10 लोग भी हैं तो वे दो बार लगने वाले इन टीकों के लिए 20 हजार रूपए कहां से लाएंगे?
इन कंपनियों को इसके लिए न राजनीतिक विभाजनों का फायदा उठाने से गुरेज है, न ही सामाजिक विभाजनों का. इससे तो हम परिचित ही हैं कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन’ को सत्ताधारी ‘भाजपा की वैक्सीन’ करार दिया है. लेकिन इसका एक और पहलू बायोटेक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला की उपरोक्त प्रेस कांफ्रेंस में उस समय दिखा, जब उन्होंने अपनी अद्विज सामाजिक पृष्ठभूमि की ओर संकेत करते हुए कहा कि मैं एक किसान परिवार से आने वाला वैज्ञानिक हूं. इल्ला जो कह रहे थे, उसका आशय यह था कि उनकी वैक्सीन के देशी होने तथा उनके समुदाय के अद्विज होने के कारण, उन्हें निशाने पर लिया जाना आसान हो गया है ( दूसरी ओर, पूनावाला परिवार पारसी है, जो भारत में अल्पसंख्यक लेकिन साधन-शक्ति संपन्न समुदाय है और गैर हिंदू होने के कारण द्विजों के बीच स्वीकार्य है. उन्हें सामाजिक श्रेणी के रूप में वह भेदभाव नहीं झेलना पड़ता जो निम्न हिंदू जातियों को झेलना पड़ता है ). इल्ला की बात पूरी तरह बेबुनियाद भले ही न हो, लेकिन यह वह दिशा भी है, जिसकी ओर जाने पर हम कोल्हू के बैल की भांति उसी वर्तुलाकार एजेंडे के भीतर चक्कर लगाते रहने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो हमें सुनियोजित तौर पर सौंपा जा रहा है.
इस वर्तुल से बाहर निकलने के लिए यह मूल सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या हमें वास्तव में कोविड के वैक्सीन की जरूरत है? यह एक ऐसी कथित महामारी है, जिसकी मृत्यु दर आंकड़ों के अनंत अतिशयोक्तिपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद नगण्य है. फरवरी-मार्च, 2020 में डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि इसकी मृत्यु दर तीन प्रतिशत से ज्यादा है, जो बढ़कर छह प्रतिशत या और भी ज्यादा हो सकती है. इन अतिशयोक्तिपूर्ण आंकड़ों और पूर्वानुमानों के बाद दुनिया भर में लॉकडाउन की शुरूआत हो गई थी. लेकिन अगस्त, 2020 में डब्ल्यूएचओ स्वीकार किया कि इसकी मृत्यु दर महज 0.6 प्रतिशत है. इसके बावजूद भय की महामारी फैलती रही और अन्य जानलेवा बीमारियों से पीड़ित लोगों को उचित इलाज मिलना दुर्भर बना रहा, जिससे लोगों की मौत होती रही. उचित इलाज के अभाव में मरने वाले ज्यादातर तो अन्य बीमारियों से ही पीड़ित थे, लेकिन जिन्हें जांच के दौरान कोविड का संक्रमण पाया, उन सब को कोविड से मृत घोषित कर दिया गया. चाहे उनमें कोविड का कोई लक्षण मौजूद हो या न हो.
अधिकांश राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं 10 महीने बीत जाने के बावजूद सामान्य स्थिति में नहीं आ पाईं हैं और विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त लोगों की बेमौत मौत का सिलसिला जारी है, जिनमें से अनेक को कोविड के खाते में दर्ज किया जा रहा है.
लेकिन आंकड़ों की तमाम हेराफेरी के बावजूद संक्रमण घट रहा है और मौतों की संख्या काफी कम हो गई है. वह भी तब जबकि साफ देखा जा सकता है कि देश भर में भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मास्क और कथित सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा है.
ऐसे में यह सवाल तो बनता ही है कि क्या हमें वास्तव में वैक्सीन की जरूरत है? ऐसा नहीं है कि यह सवाल उठाया नहीं जा रहा है. दुनिया भर में अनेक विशेषज्ञ इस सवाल को उठा रहे हैं, लेकिन उन्हें हम तक पहुंचने से रोकने के लिए दुनिया के संचार माध्यमों पर काबिज कंपनियां जी-जान लगा दे रही हैं. इसके बावजूद जो सूचनाएं लोगों तक पहुंच जा रहीं हैं, उन्हें कंस्पायरेसी थ्योरी कह कर अविश्वसनीय बना डालने की कोशिश की जा रही है.
हाल ही में भारत सरकार महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य-कार्यक्रम ‘आयुष्मान भारत’ के सीईओ डॉ. इंदू भूषण ने भी एक वेबीनार में यह सवाल उठाते हुए कहा कि भारत में हर्ड इम्यूनिटी विकसित हो रही है. संक्रमण की दर (आर फैक्टर) सभी राज्यों में एक प्रतिशत से कम हो गई है, (जो कि किसी भी महामारी का प्रसार रूक जाने का संकेत माना जाता है), ऐसे में क्या भारत सरकार को वैक्सीन की खरीद पर खर्च करना चाहिए? इंदू भूषण स्वयं भी दुनिया के जाने-माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा कोविड की रोकथाम संबंधी कार्रवाइयों में ‘आयुष्मान भारत’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन कहा जा सकता है कि इंदू भूषण अपनी कंजूस सरकार की तरफदारी कर रहे हैं या उन्हें देश की गरीब जनता की कोई फिक्र नहीं है.
लेकिन इसके बावजूद यह सवाल तो है ही कि एक ऐसी महामारी जिसकी मृत्यु दर 0.6 प्रतिशत है और जिसकी वैक्सीन की सफलता की दर 70 से 90 प्रतिशत है. क्या उसे वास्तव में वैक्सीन कहा जाना चाहिए? जो कथित वैक्सीन हमारे सामने परोसी जा रही है, उसकी असफलता की दर घोषित रूप से 10 से 30 प्रतिशत है! विभिन्न शोधों में कोविड का आर फैक्टर दो से छह के बीच माना गया है. डब्ल्यूएचओ समेत सभी संस्थाएं यही कहती रहीं हैं कि नोवल कोरोना वायरस का एक कैरियर दो से छह व्यक्तिय तक इसे फैला सकता है, जिनमें से 80 फीसदी को इसके कोई लक्षण नहीं होंगे. शेष 15 प्रतिशत को बहुत मामूली लक्षण होंगे और महज पांच फीसदी को हॉस्पिटल में भर्ती करवाने की जरूरत पड़ सकती है. लेकिन यह वैक्सीन अगर दुनिया के सभी लोगों को लगा दी जाती है, जैसा कि बिल गेट्स का सपना है, तो कोविड असुरक्षित लोगों की संख्या 10 से 30 प्रतिशत के बीच होगी!
इतना ही नहीं, इन वैक्सीनों के साइड इफेक्ट के बारे में भी सवाल उठते रहे हैं. अनेक लोग क्लिनिकल ट्रायल के दौरान भयावह दुष्परिणाम झेल चुके हैं तथा लगभग एक दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है.
खुद बिल गेट्स ने भी अप्रैल, 2020 में एक इंटरव्यू में इन सवालों का जबाब देते हुए स्वीकार किया था कि कोविड के टीकाकरण के दौरान दुनिया भर में सात लाख लोगों को बुरे प्रभावों से गुजरना पड़ सकता है. उस साक्षात्कार में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राजेनेका की निर्माणाधीन वैक्सीन (जिसका भारतीय संस्करण कोविशील्ड है) का जिक्र करते हुए करते हुए प्रशंसात्मक लहजे में कहा था कि 10 हजार लोगों में से “महज” एक व्यक्ति को वैक्सीन के साइड इपेक्ट होंगे. यानी, दुनिया की सात अरब आबादी में से “बमुश्किल” सात लाख लोग इसकी चपेट में आएंगे. ग़ौरतलब है कि ये साइड इफैक्ट सिर में दर्द से लेकर, स्थाई अनुवांशिक परिवर्तन और व्यक्ति की मौत तक के हो सकते हैं. गेट्स ने उस साक्षात्कार में यह भी स्वीकार किया था कि वैक्सीनें अधिक उम्र के लोगों पर कारगर नहीं होतीं. हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि ऐसी वैक्सीन बन सकेगी, जो बुर्जुर्गों पर भी प्रभावी हो. लेकिन कोविशिल्ड, कोवैक्सीन समेत दुनिया भर में जितनी भी वैक्सीनें बनी हैं और बन रही हैं, उनमें से किसी ने यह दावा नहीं किया है कि उनकी वैक्सीन बुर्जुग लोगों के मामले में प्रभावी रहेगी. क्लिनिकल ट्रायलों के ज्यादातर आंकड़े किशोर, युवा और अधेड़ के लोगों के है. ऐसे में यह सवाल भी बनता है कि क्या 10 से 30 प्रतिशत की असफलता-दर बुर्जुर्गों पर इसके बे-असर रहने के कारण ही है?
सवाल यह भी है कि क्या वास्तव में कोई वैक्सीन बनी है? या यह बस पानी है, जैसा कि अदार पूनावाला ने कृष्ण इल्ला की वैक्सीन के बारे कहा है? उनका कुछ ज्यादा पानी, इनका कुछ कम पानी! अगर बनी है, लेकिन वह बुजुर्गों पर असर नहीं करती तो इसका होना या न होना बेमानी है क्योंकि कोविड के लगभग शत-प्रतिशत शिकार हमारे बुर्जुग ही हैं.
अनेक विशेषज्ञ आरंभ से ही कहते रहे हैं कि अनेक कारणों से फ्लू की ही तरह कोविड की भी कोई वैक्सीन कारगर नहीं हो सकती. इनमें से एक मुख्य कारण वायरस का म्युटेंट करना है. हर्ड इम्युनिटी ही इसका कारगर हल है.
बहरहाल, कोविड के संदर्भ सामने आने वाले तथ्यों से गुजरते हुए हम देखते हैं कि इसके पीछे का बड़ा खेल सिर्फ पैसों का नहीं है. कम से कम सिर्फ कागज अथवा डेबिट-क्रेडिट कार्ड में निहित नोटों और डॉलरों का तो नहीं ही है. कोविड का खेल अर्थ की बजाय अर्थ-व्यवस्था पर कब्ज़े का है. इस खेल की बिसात पर मौजूदा राजनेता, राजनीतिक दल, पूनावाला, इल्ला आदि महज मोहरे के रूप में मौजूद हैं. असली खेल दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने का है. इस बिसात के पीछे वे गिने-चुने पूंजीपति बैठे हैं, जिनके पास दुनिया के अधिकांश देशों से अधिक धन है. पिछले कुछ वर्षों में दुनिया की अधिकांश संचार-व्यवस्था का आमूलचूल इनके कब्ज़े में आता गया है. इनमें प्रमुख हैं माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन, गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के मालिक और उनके मित्रगण.
ये जनता के सामने अब एक पूंजीपति के रूप में नहीं आते, बल्कि एक दार्शनिक, भविष्यवक्ता, चिकित्सा-विशेषज्ञ या परोपकारी के रूप में प्रकट होते हैं. दुनिया भर की राजसत्ताएं इनसे आशीर्वाद लेती हैं, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा इनसे अपनी सरकारों की मनमानी के खिलाफ लड़ाई में सहयोग के लिए अनुनय करता है. जनता इन्हें अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का रक्षक समझती है.
इन पूंजीपतियों के पास भी अपना एक दर्शन है. दुनिया के भविष्य के बारे में एक रूप-रेखा है. वे भी अपने तरीके से दुनिया को स्वर्ग बनाना चाहते हैं. वे तकनीक के इस दौर में अनुपयोगी होती जा रही अकुशल मानव-आबादी से दुनिया को निजात दिलाना चाहते हैं और एक ‘नया मनुष्य’ और ‘नई दुनिया’ बनाना चाहते हैं. जाहिर है, उनके सपनों की नई दुनिया और हमारे सपनों की नई दुनिया दर्शन के विपरीत ध्रुवों पर स्थित है.
(पत्रकार व शोधकर्ता प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और साहित्य व संस्कृति के सबाल्टर्न पक्ष के विश्लेषण में रही है. यह आलेख सर्वप्रथम दिल्ली से प्रकाशित वेब पोर्टल ‘जन ज्वार’ में उनके साप्ताहिक कॉलम ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुआ है)
इन कंपनियों को इसके लिए न राजनीतिक विभाजनों का फायदा उठाने से गुरेज है, न ही सामाजिक विभाजनों का. इससे तो हम परिचित ही हैं कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन’ को सत्ताधारी ‘भाजपा की वैक्सीन’ करार दिया है. लेकिन इसका एक और पहलू बायोटेक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला की उपरोक्त प्रेस कांफ्रेंस में उस समय दिखा, जब उन्होंने अपनी अद्विज सामाजिक पृष्ठभूमि की ओर संकेत करते हुए कहा कि मैं एक किसान परिवार से आने वाला वैज्ञानिक हूं. इल्ला जो कह रहे थे, उसका आशय यह था कि उनकी वैक्सीन के देशी होने तथा उनके समुदाय के अद्विज होने के कारण, उन्हें निशाने पर लिया जाना आसान हो गया है ( दूसरी ओर, पूनावाला परिवार पारसी है, जो भारत में अल्पसंख्यक लेकिन साधन-शक्ति संपन्न समुदाय है और गैर हिंदू होने के कारण द्विजों के बीच स्वीकार्य है. उन्हें सामाजिक श्रेणी के रूप में वह भेदभाव नहीं झेलना पड़ता जो निम्न हिंदू जातियों को झेलना पड़ता है ). इल्ला की बात पूरी तरह बेबुनियाद भले ही न हो, लेकिन यह वह दिशा भी है, जिसकी ओर जाने पर हम कोल्हू के बैल की भांति उसी वर्तुलाकार एजेंडे के भीतर चक्कर लगाते रहने के लिए मजबूर हो जाएंगे, जो हमें सुनियोजित तौर पर सौंपा जा रहा है.
इस वर्तुल से बाहर निकलने के लिए यह मूल सवाल उठाया जाना चाहिए कि क्या हमें वास्तव में कोविड के वैक्सीन की जरूरत है? यह एक ऐसी कथित महामारी है, जिसकी मृत्यु दर आंकड़ों के अनंत अतिशयोक्तिपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद नगण्य है. फरवरी-मार्च, 2020 में डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि इसकी मृत्यु दर तीन प्रतिशत से ज्यादा है, जो बढ़कर छह प्रतिशत या और भी ज्यादा हो सकती है. इन अतिशयोक्तिपूर्ण आंकड़ों और पूर्वानुमानों के बाद दुनिया भर में लॉकडाउन की शुरूआत हो गई थी. लेकिन अगस्त, 2020 में डब्ल्यूएचओ स्वीकार किया कि इसकी मृत्यु दर महज 0.6 प्रतिशत है. इसके बावजूद भय की महामारी फैलती रही और अन्य जानलेवा बीमारियों से पीड़ित लोगों को उचित इलाज मिलना दुर्भर बना रहा, जिससे लोगों की मौत होती रही. उचित इलाज के अभाव में मरने वाले ज्यादातर तो अन्य बीमारियों से ही पीड़ित थे, लेकिन जिन्हें जांच के दौरान कोविड का संक्रमण पाया, उन सब को कोविड से मृत घोषित कर दिया गया. चाहे उनमें कोविड का कोई लक्षण मौजूद हो या न हो.
अधिकांश राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएं 10 महीने बीत जाने के बावजूद सामान्य स्थिति में नहीं आ पाईं हैं और विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त लोगों की बेमौत मौत का सिलसिला जारी है, जिनमें से अनेक को कोविड के खाते में दर्ज किया जा रहा है.
लेकिन आंकड़ों की तमाम हेराफेरी के बावजूद संक्रमण घट रहा है और मौतों की संख्या काफी कम हो गई है. वह भी तब जबकि साफ देखा जा सकता है कि देश भर में भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मास्क और कथित सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा है.
ऐसे में यह सवाल तो बनता ही है कि क्या हमें वास्तव में वैक्सीन की जरूरत है? ऐसा नहीं है कि यह सवाल उठाया नहीं जा रहा है. दुनिया भर में अनेक विशेषज्ञ इस सवाल को उठा रहे हैं, लेकिन उन्हें हम तक पहुंचने से रोकने के लिए दुनिया के संचार माध्यमों पर काबिज कंपनियां जी-जान लगा दे रही हैं. इसके बावजूद जो सूचनाएं लोगों तक पहुंच जा रहीं हैं, उन्हें कंस्पायरेसी थ्योरी कह कर अविश्वसनीय बना डालने की कोशिश की जा रही है.
हाल ही में भारत सरकार महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य-कार्यक्रम ‘आयुष्मान भारत’ के सीईओ डॉ. इंदू भूषण ने भी एक वेबीनार में यह सवाल उठाते हुए कहा कि भारत में हर्ड इम्यूनिटी विकसित हो रही है. संक्रमण की दर (आर फैक्टर) सभी राज्यों में एक प्रतिशत से कम हो गई है, (जो कि किसी भी महामारी का प्रसार रूक जाने का संकेत माना जाता है), ऐसे में क्या भारत सरकार को वैक्सीन की खरीद पर खर्च करना चाहिए? इंदू भूषण स्वयं भी दुनिया के जाने-माने स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं तथा कोविड की रोकथाम संबंधी कार्रवाइयों में ‘आयुष्मान भारत’ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन कहा जा सकता है कि इंदू भूषण अपनी कंजूस सरकार की तरफदारी कर रहे हैं या उन्हें देश की गरीब जनता की कोई फिक्र नहीं है.
लेकिन इसके बावजूद यह सवाल तो है ही कि एक ऐसी महामारी जिसकी मृत्यु दर 0.6 प्रतिशत है और जिसकी वैक्सीन की सफलता की दर 70 से 90 प्रतिशत है. क्या उसे वास्तव में वैक्सीन कहा जाना चाहिए? जो कथित वैक्सीन हमारे सामने परोसी जा रही है, उसकी असफलता की दर घोषित रूप से 10 से 30 प्रतिशत है! विभिन्न शोधों में कोविड का आर फैक्टर दो से छह के बीच माना गया है. डब्ल्यूएचओ समेत सभी संस्थाएं यही कहती रहीं हैं कि नोवल कोरोना वायरस का एक कैरियर दो से छह व्यक्तिय तक इसे फैला सकता है, जिनमें से 80 फीसदी को इसके कोई लक्षण नहीं होंगे. शेष 15 प्रतिशत को बहुत मामूली लक्षण होंगे और महज पांच फीसदी को हॉस्पिटल में भर्ती करवाने की जरूरत पड़ सकती है. लेकिन यह वैक्सीन अगर दुनिया के सभी लोगों को लगा दी जाती है, जैसा कि बिल गेट्स का सपना है, तो कोविड असुरक्षित लोगों की संख्या 10 से 30 प्रतिशत के बीच होगी!
इतना ही नहीं, इन वैक्सीनों के साइड इफेक्ट के बारे में भी सवाल उठते रहे हैं. अनेक लोग क्लिनिकल ट्रायल के दौरान भयावह दुष्परिणाम झेल चुके हैं तथा लगभग एक दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है.
खुद बिल गेट्स ने भी अप्रैल, 2020 में एक इंटरव्यू में इन सवालों का जबाब देते हुए स्वीकार किया था कि कोविड के टीकाकरण के दौरान दुनिया भर में सात लाख लोगों को बुरे प्रभावों से गुजरना पड़ सकता है. उस साक्षात्कार में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राजेनेका की निर्माणाधीन वैक्सीन (जिसका भारतीय संस्करण कोविशील्ड है) का जिक्र करते हुए करते हुए प्रशंसात्मक लहजे में कहा था कि 10 हजार लोगों में से “महज” एक व्यक्ति को वैक्सीन के साइड इपेक्ट होंगे. यानी, दुनिया की सात अरब आबादी में से “बमुश्किल” सात लाख लोग इसकी चपेट में आएंगे. ग़ौरतलब है कि ये साइड इफैक्ट सिर में दर्द से लेकर, स्थाई अनुवांशिक परिवर्तन और व्यक्ति की मौत तक के हो सकते हैं. गेट्स ने उस साक्षात्कार में यह भी स्वीकार किया था कि वैक्सीनें अधिक उम्र के लोगों पर कारगर नहीं होतीं. हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि ऐसी वैक्सीन बन सकेगी, जो बुर्जुर्गों पर भी प्रभावी हो. लेकिन कोविशिल्ड, कोवैक्सीन समेत दुनिया भर में जितनी भी वैक्सीनें बनी हैं और बन रही हैं, उनमें से किसी ने यह दावा नहीं किया है कि उनकी वैक्सीन बुर्जुग लोगों के मामले में प्रभावी रहेगी. क्लिनिकल ट्रायलों के ज्यादातर आंकड़े किशोर, युवा और अधेड़ के लोगों के है. ऐसे में यह सवाल भी बनता है कि क्या 10 से 30 प्रतिशत की असफलता-दर बुर्जुर्गों पर इसके बे-असर रहने के कारण ही है?
सवाल यह भी है कि क्या वास्तव में कोई वैक्सीन बनी है? या यह बस पानी है, जैसा कि अदार पूनावाला ने कृष्ण इल्ला की वैक्सीन के बारे कहा है? उनका कुछ ज्यादा पानी, इनका कुछ कम पानी! अगर बनी है, लेकिन वह बुजुर्गों पर असर नहीं करती तो इसका होना या न होना बेमानी है क्योंकि कोविड के लगभग शत-प्रतिशत शिकार हमारे बुर्जुग ही हैं.
अनेक विशेषज्ञ आरंभ से ही कहते रहे हैं कि अनेक कारणों से फ्लू की ही तरह कोविड की भी कोई वैक्सीन कारगर नहीं हो सकती. इनमें से एक मुख्य कारण वायरस का म्युटेंट करना है. हर्ड इम्युनिटी ही इसका कारगर हल है.
बहरहाल, कोविड के संदर्भ सामने आने वाले तथ्यों से गुजरते हुए हम देखते हैं कि इसके पीछे का बड़ा खेल सिर्फ पैसों का नहीं है. कम से कम सिर्फ कागज अथवा डेबिट-क्रेडिट कार्ड में निहित नोटों और डॉलरों का तो नहीं ही है. कोविड का खेल अर्थ की बजाय अर्थ-व्यवस्था पर कब्ज़े का है. इस खेल की बिसात पर मौजूदा राजनेता, राजनीतिक दल, पूनावाला, इल्ला आदि महज मोहरे के रूप में मौजूद हैं. असली खेल दुनिया की राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने का है. इस बिसात के पीछे वे गिने-चुने पूंजीपति बैठे हैं, जिनके पास दुनिया के अधिकांश देशों से अधिक धन है. पिछले कुछ वर्षों में दुनिया की अधिकांश संचार-व्यवस्था का आमूलचूल इनके कब्ज़े में आता गया है. इनमें प्रमुख हैं माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन, गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के मालिक और उनके मित्रगण.
ये जनता के सामने अब एक पूंजीपति के रूप में नहीं आते, बल्कि एक दार्शनिक, भविष्यवक्ता, चिकित्सा-विशेषज्ञ या परोपकारी के रूप में प्रकट होते हैं. दुनिया भर की राजसत्ताएं इनसे आशीर्वाद लेती हैं, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा इनसे अपनी सरकारों की मनमानी के खिलाफ लड़ाई में सहयोग के लिए अनुनय करता है. जनता इन्हें अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का रक्षक समझती है.
इन पूंजीपतियों के पास भी अपना एक दर्शन है. दुनिया के भविष्य के बारे में एक रूप-रेखा है. वे भी अपने तरीके से दुनिया को स्वर्ग बनाना चाहते हैं. वे तकनीक के इस दौर में अनुपयोगी होती जा रही अकुशल मानव-आबादी से दुनिया को निजात दिलाना चाहते हैं और एक ‘नया मनुष्य’ और ‘नई दुनिया’ बनाना चाहते हैं. जाहिर है, उनके सपनों की नई दुनिया और हमारे सपनों की नई दुनिया दर्शन के विपरीत ध्रुवों पर स्थित है.
(पत्रकार व शोधकर्ता प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और साहित्य व संस्कृति के सबाल्टर्न पक्ष के विश्लेषण में रही है. यह आलेख सर्वप्रथम दिल्ली से प्रकाशित वेब पोर्टल ‘जन ज्वार’ में उनके साप्ताहिक कॉलम ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुआ है)